हिन्दुओं के प्रमुख वंश, जानिए अपने पूर्वजों को

 


भारतीय लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश और ऋषि मुनियोंकी संतानें हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के कई पुत्र और पुत्रियां थी। इन सभी के पुत्रों और पुत्रियों से ही देव (सुर), दैत्य (असुर), दानव, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, वानर, नाग, चारण, निषाद, मातंग, रीछ, भल्ल, किरात, अप्सरा, विद्याधर, सिद्ध, निशाचर, वीर, गुह्यक, कुलदेव, स्थानदेव, ग्राम देवता, पितर, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वैताल, क्षेत्रपाल, मानव आदि की उत्पत्ति हुई। 

वंश लेखकों, तीर्थ पुरोहितों, पण्डों व वंश परंपरा के वाचक संवाहकों द्वारा समस्त आर्यावर्त के निवासियों को एकजुट रखने का जो आत्मीय प्रयास किया गया है, वह निश्चित रूप से वैदिक ऋषि परंपरा का ही अद्यतन आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। पुराण अनुसार द्रविड़, चोल एवं पांड्य जातियों की उत्पत्ति में राजा नहुष के योगदान को मानते हैं, जो इलावर्त का चंद्रवंशी राजा था। पुराण भारतीय इतिहास को जलप्रलय तक ले जाते हैं। यहीं से वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ होता है। वेदों में पंचनद का उल्लेख है। अर्थात पांच प्रमुख कुल से ही भारतीयों के कुलों का विस्तार हुआ।

विभाजित वंश : संपूर्ण हिन्दू वंश वर्तमान में गोत्र, प्रवर, शाखा, वेद, शर्म, गण, शिखा, पाद, तिलक, छत्र, माला, देवता (शिव, विनायक, कुलदेवी, कुलदेवता, इष्टदेवता, राष्ट्रदेवता, गोष्ठ देवता, भूमि देवता, ग्राम देवता, भैरव और यक्ष) आदि में वि‍भक्त हो गया है। जैसे-जैसे समाज बढ़ा, गण और गोत्र में भी कई भेद होते गए। बहुत से समाज या लोगों ने गुलामी के काल में कालांतर में यह सब छोड़ दिया है तो उनकी पहचान कश्यप गोत्र मान ली जाती है।

 

कुलहंता : आज संपूर्ण अखंड भारत अर्थात अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और बर्मा आदि में जो-जो भी मनुष्य निवास कर रहे हैं, वे सभी निम्नलिखित प्रमुख हिन्दू वंशों से ही संबंध रखते हैं। कालांतर में उनकी जाति, धर्म और प्रांत बदलते रहे लेकिन वे सभी एक ही कुल और वंश से हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कुल का नाश तब होता है जबकि कोई व्यक्ति अपने कुलधर्म को छोड़ देता है। इस तरह वे अपने मूल एवं पूर्वजों को हमेशा के लिए भूल जाते हैं। कुलहंता वह होता है, जो अपने कुलधर्म और परंपरा को छोड़कर अन्य के कुलधर्म और परंपरा को अपना लेता है। जो वृक्ष अपनी जड़ों से नफरत करता है उसे अपने पनपने की गलतफहमी नहीं होना चाहिए।

 

भारत खंड का विस्तार : महाभारत में प्राग्ज्योतिष (असम), किंपुरुष (नेपाल), त्रिविष्टप (तिब्बत), हरिवर्ष (चीन), कश्मीर, अभिसार (राजौरी), दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गंधार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिन्ध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिन्ध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आंध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग 200 जनपद वर्णित हैं, जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।

 

आज इन सभी के नाम बदल गए हैं। भारत की जाट, गुर्जर, पटेल, राजपूत, मराठा, धाकड़, सैनी, परमार, पठानिया, अफजल, घोसी, बोहरा, अशरफ, कसाई, कुला, कुंजरा, नायत, मेंडल, मोची, मेघवाल आदि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध की कई जातियां सभी एक ही वंश से उपजी हैं। खैर, अब हम जानते हैं हिन्दुओं (मूलत: भारतीयों) के प्रमुख वंशों के बारे में जिनमें से किसी एक के वंश से आप भी जुड़े हुए हैं। आपके लिए यह जानकारी महत्वपूर्ण हो सकती।


जो खुद को मूल निवासी मानते हैं वे यह भी जान लें कि प्रारंभ में मानव हिमालय के आसपास ही रहता था। हिमयुग की समाप्ति के बाद ही धरती पर वन क्षेत्र और मैदानों का विस्तार हुआ तब मानव वहां जाकर रहने लगा। हर धर्म में इसका उल्लेख मिलता है कि हिमालय से निकलने वाली किसी नदी के पास ही मानव की उत्पत्ति हुई थी। वहीं पर एक पवित्र बगिचा था जहां पर प्रारंभिक मानवों का एक समूह रहता था। धर्मो के इतिहास के अलावा धरती के भूगोल और मानव इतिहास के वैज्ञानिक पक्ष को भी जानना जरूरी है।

ब्रह्मा कुल : ब्रह्माजी की प्रमुख रूप से तीन पत्नियां थीं। सावित्री, गायत्री और सरस्वती। तिनों से उनको पुत्र और पुत्रियों की प्राप्ति हुई। इसके अलावा ब्रह्मा के मानस पुत्र भी थे जिनमें से प्रमुख के नाम इस प्रकार हैं- 1.अत्रि, 2.अंगिरस, 3.भृगु, 4.कंदर्भ, 5.वशिष्ठ, 6.दक्ष, 7.स्वायंभुव मनु, 8.कृतु, 9.पुलह, 10.पुलस्त्य, 11.नारद, 12. चित्रगुप्त, 13.मरीचि, 14.सनक, 15.सनंदन, 16.सनातन और 17.सनतकुमार आदि।


स्वायंभुव मनु कुल : स्वायंभुव मनु कुल की कई शाखाएं हैं। उनमें से एक प्रमुख शाखा की बात करते हैं। स्वायंभुव मनु समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल 5 संतानें थीं जिनमें से 2 पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा 3 कन्याएं आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। रुचि को आकूति से एक पुत्र उत्प‍न्न हुआ जिसका नाम यज्ञ रखा गया। इनकी पत्नी का नाम दक्षिणा था।

 

गौरतलब है कि देवहूति ने 9 कन्याओं को जन्म दिया जिनका विवाह प्रजापतियों से किया गया था। देवहूति ने एक पुत्र को भी जन्म दिया था, जो महान ऋषि कपिल के नाम से जाने जाते हैं। भारत के कपिलवस्तु में उनका जन्म हुआ था और वे सांख्य दर्शन के प्रवर्तक थे। उन्होंने ही सगर के 100 पुत्रों को अपने शाप से भस्म कर दिया था। 

 

दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक 2 पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी।

 

स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत- ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से कवि, महावीर तथा सवन ये 3 नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।

 

महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी, जो आज मूल रूप में नहीं मिलती। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ रंग होता था और आज जाति।

 

प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकांत में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए, लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही। सुनंदा नदी के किनारे 100 वर्ष तक तपस्या की। दोनों पति-पत्नी ने नैमिषारण्य नामक पवित्र तीर्थ में गोमती के किनारे भी बहुत समय तक तपस्या की। उस स्थान पर दोनों की समाधियां बनी हुई हैं। 

 

प्रियव्रत का कुल : राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र जम्बूद्वीप के अधिपति हुए। अग्नीघ्र के 9 पुत्र जम्बूद्वीप के 9 खंडों के स्वामी माने गए हैं जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृत वर्ष, भद्राश्व वर्ष, केतुमाल वर्ष, कुरु वर्ष, हिरण्यमय वर्ष, रम्यक वर्ष, हरि वर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड कहते हैं। नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से 'भरत' एवं बाहुबली का जन्म हुआ। भरत के नाम पर ही बाद में इस नाभि खंड को 'भारतवर्ष' कहा जाने लगा। बाहुबली को वैराग्य प्राप्त हुआ तो ऋषभ ने भरत को चक्रवर्ती सम्राट बनाया। भरत को वैराग्य हुआ तो वे अपने बड़े पुत्र को राजपाट सौंपकर जंगल चले गए।

 

स्वायंभु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।

कश्यप कुल : कश्यप कुल की कई शाखाएं हैं। पिप्पल, नीम, कदंब, कर्दम, केम, केन, बड़, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, नाग आदि उपनाम या गोत्र हिन्दू मोची समाज में पाए जाते हैं। ये सभी मरीचिवंशी है। यहां प्रमुख शाखाओं की बात करते हैं। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि के विद्वान पुत्र थे। मरीचि के दूसरे पुत्र ऋषि अत्रि थे जिनसे अत्रिवंश चला। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि हैं। ये दक्ष के दामाद और शंकर के साढू थे। इनकी पत्नी दक्षकन्या संभूति थी। इनकी 2 और पत्नियां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था। इन्होंने ही भृगु को दंडनीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरू के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखंडी कहा गया है। इन्हीं के पुत्र थे कश्यप ऋषि।


2. दिति : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक 2 पुत्र एवं सिंहिका नामक 1 पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन 3 संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। दिति के पुत्र ही दैत्य और असुर कहलाए। इनके काल में महान विरोचन और राजा बलि हुए। वर्तमान में अधिकतर दलित लोग खुद को दिति के कुल का मानते हैं, जोकि पूर्णत: सही नहीं है। सभी के अलग अलग है।

 

3. दनु : ऋषि कश्यप को उनकी पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरुपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई।

 

4. अन्य पत्नियां : रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं। कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने सांप, बिच्छु आदि विषैले जंतु पैदा किए।

 

ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जंतुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया। 

 

कद्रू की कोख से बहुत से नागों की उत्पत्ति हुई, जिनमें प्रमुख 8 नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। इन्हीं से नागवंश की स्थापना हुई।

 

तार्क्ष्य की पत्नी विनीता के गर्भ से गरूड़ (विष्णु का वाहन) और वरुण (सूर्य का सारथि) पैदा हुए। रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ। ब्रह्माजी की आज्ञा से प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की 2 पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नाम के 60 हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ, जो कि कालांतर में निवातकवच के नाम से विख्यात हुए।

माना जाता है कि कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्यप सागर (कैस्पियन सागर) और कश्मीर का प्राचीन नाम था। समूचे कश्मीर पर ऋषि कश्यप और उनके पुत्रों का ही शासन था। कश्यप ऋषि का इतिहास प्राचीन माना जाता है। कैलाश पर्वत के आसपास भगवान शिव के गणों की सत्ता थी। उक्त इलाके में ही दक्ष राजाओं का साम्राज्य भी था। कश्यप ऋषि के जीवन पर शोध किए जाने की आवश्यकता है। इति।

अत्रि वंश : ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि से चन्द्र वंश चला। यह प्रस्तुत है अत्रिवंशी ययाति कुल की जानकारी...

 

ययाति कुल : ऋषि अत्रि से आत्रेय वंश चला। आत्रेय कुल की कई शाखाएं हैं। इस बारे में विस्तार से जानने के लिए मत्स्य पुराण पढ़ें। आत्रेय नाम की शाखाओं को छोड़कर यहां अन्य कुल की बात करते हैं। अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा (पुरुवस) का जन्म हुआ। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पुरुवस को ऐल भी कहा जाता था। पुरुवस का विवाह उर्वशी से हुआ जिससे उसको आयु, वनायु, शतायु, दृढ़ायु, घीमंत और अमावसु नामक पुत्र प्राप्त हुए। अमावसु एवं वसु विशेष थे। अमावसु ने कान्यकुब्ज नामक नगर की नींव डाली और वहां का राजा बना। आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके 5 पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृदशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। प्रथम नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिसमें ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे। यति के बारे में फिर कभी। अभी तो जानिए ययाति के बारे में।

 

अमावसु ने पृथक वंश चलाया जिसमें क्रमश: 15 प्रमुख लोग हुए। इनमें कुशिक (कुशश्च), गाधि, ऋषि विश्वामित्र, मधुच्छंदस आदि हुए। नय के पश्‍चात इस वंश का उल्लेख नहीं मिलता। इस वंश में एक अजमीगढ़ राजा का उल्लेख मिलता है जिससे आगे चलकर इस वंश का विस्तार हुआ।

 

ययाति प्रजापति ब्रह्मा की पीढ़ी में हुए थे। ययाति ने कई स्त्रियों से संबंध बनाए थे इसलिए उनके कई पुत्र थे, लेकिन उनकी 2 पत्नियां देवयानी और शर्मिष्ठा थीं। देवयानी गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तो शर्मिष्ठा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री थीं। पहली पत्नी देवयानी के यदु और तुर्वसु नामक 2 पुत्र हुए और दूसरी शर्मिष्ठा से द्रुहु, पुरु तथा अनु हुए। ययाति की कुछ बेटियां भी थीं जिनमें से एक का नाम माधवी था। 

 

ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। एक समय ऐसा था, जब 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।

 

ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पश्चिम में पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भू-मंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। ययाति के राज्य का क्षे‍त्र अ‍फगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था।

 

महाभारत आदिपर्व 95 के अनुसार यदु और तुर्वशु मनु की 7वीं पीढ़ी में हुए थे (मनु-इला-पुरुरवा-आयु-नहुष-ययाति-यदु-तुर्वशु)। महाभारत आदिपर्व 75.15-16 में यह भी लिखा है कि नाभानेदिष्ठ मनु का पुत्र और इला का भाई था। नाभानेदिष्ठ के पिता मनु ने उसे ऋग्वेद दशम मंडल के सूक्त 61 और 62 का प्रचार करने के लिए कहा।

 

1. पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए। उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। पुरु के वंश में ही अर्जुन पुत्र अभिमन्यु हुए। इसी वंश में आगे चलकर परीक्षित हुए जिनके पुत्र थे जन्मेजय।

2. यदु का वंश : यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदु के 4 पुत्र थे- सहस्रजीत, क्रोष्टा, नल और रिपुं। सहस्रजीत से शतजीत का जन्म हुआ। शतजीत के 3 पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय से धर्म, धर्म से नेत्र, नेत्र से कुन्ति, कुन्ति से सोहंजि, सोहंजि से महिष्मान और महिष्मान से भद्रसेन का जन्म हुआ। 

 

3. तुर्वसु का वंश : तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करंधम और करंधम का पुत्र हुआ मरूत। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरुवंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था, परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।

 

महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। पहले ये क्षत्रिय थे, लेकिन छत्रिय कर्म छोड़न के बाद इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। महाभारत युद्ध में ये कौरवों के साथ थे। इससे पूर्व दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने इन्हें पराजित किया था।

 

4. अनु का वंश : अनु को ऋ‍ग्वेद में कहीं-कहीं आनव भी कहा गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह कबीला परुष्णि नदी (रावी नदी) क्षेत्र में बसा हुआ था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे।

 

अनु के पुत्र सभानर से कालानल, कालानल से सृन्जय, सृन्जय से पुरन्जय, पुरन्जय से जन्मेजय, जन्मेजय से महाशाल, महाशाल से महामना का जन्म हुआ। महामना के 2 पुत्र उशीनर और तितिक्षु हुए। उशीनर के 5 पु‍त्र हुए- नृग, कृमि, नव, सुव्रत, शिवि (औशीनर)। इसमें से शिवि के 4 पुत्र हुए केकय, मद्रक, सुवीर और वृषार्दक। महाभारत काल में इन चारों के नाम पर 4 जनपद थे।

 

5. द्रुह्यु का वंश : द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे। बाद में द्रुह्युओं को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए।

 

ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के 100 पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए।

 

* यदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वस के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे। तुर्वस और द्रुह्यु से ही यवन और मलेच्छों का वंश चला। इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। माना जाता है कि यहुदियों के जो 12 कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था। हालांकि यह शोध का विषय है।

भृगु कुल : भृगु से भार्गव, च्यवन, और्व, आप्नुवान, जमदग्नि, दधीचि आदि के नाम से गोत्र चले। यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। ये विष्णु के श्वसुर और शिव के साढू थे। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है। पारसी धर्म के लोगों को अत्रि, भृगु और अंगिरा के कुल का माना जाता है। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना गया है। पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है।


(ब्रह्मा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र ऋषि सारस्वत थे। एक मान्यता अनुसार पुरूरवा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र सरस्वान थे। समस्त सारस्वत जाती का मूल ऋषि सारस्वत है। कुछ लोगों अनुसार दधीचि के पुत्र सारस्वत ऋषि थे। दधीचि के पिता अथर्वा और अथर्वा के पिता ऋषि भृगु थे और भृगु के पिता ब्रह्मा। एक अन्य मान्यता अनुसार इंद्र ने 'अलंबूषा' नाम की एक अप्सरा को दधीचि का तप भंग करने के लिए भेजा। दधीचि इस समय देवताओं का तर्पण कर रहे थे। सुन्दरी अप्सरा को वहाँ देखकर उनका वीर्य रुस्खलित हो गया। सरस्वती नदी ने उस वीर्य को अपनी कुक्षी में धारण किया तथा एक पुत्र के रूप में जन्म दिया, जो कि 'सारस्वत' कहलाया।)

 

मान्यता है कि अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। जरथुस्त्र ने इस धर्म को एक व्यवस्था दी तो इस धर्म का नाम 'जरथुस्त्र' या 'जोराबियन धर्म' पड़ गया।

 

महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। इसका मतलब ख्याति उनकी भतीजी थी। दक्ष की दूसरी कन्या सती से भगवान शंकर ने विवाह किया था। ख्याति से भृगु को 2 पुत्र दाता और विधाता मिले और 1 बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था।

 

भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। पुराणों में कहा गया है कि इन्हीं से भृगु वंश आगे बढ़ा। भृगु ने ही भृगु संहिता की रचना की। उसी काल में उनके भाई स्वायंभुव मनु ने मनु स्मृति की रचना की थी। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।

 

भृगु ऋषि के 3 प्रमुख पुत्र थे उशना, शुक्र एवं च्यवन। उनमें से शुक्र एवं उनका परिवार दैत्यों के पक्ष में शामिल होने के कारण नष्ट हो गया। इस प्रकार च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की वृद्धि की। महाभारत में च्यवन ऋषि का वंश क्रम इस प्रकार है। च्यवन (पत्नी मनुकन्या आरुषी), और्व, और्व से ऋचीक, ऋचीक से जमदग्नि, जमदग्नि से परशुराम। भृगु ऋषि के पुत्रों में से च्यवन ऋषि एवं उसका परिवार पश्चिम हिन्दुस्तान में आनर्त देश से संबंधित था। उशनस् शुक्र उत्तर भारत के मध्य भाग से संबंधित था। इस वंश ने नि‍म्नलिखित व्यक्ति प्रमुख माने जाते हैं- ऋचीक और्व, जमदग्नि, परशुराम, इन्द्रोत शौनक, प्राचेतस और वाल्मीकि। वाल्मीकि वंश के कई लोग आज ब्राह्मण भी हैं और शूद्र? भी। ऐसा कहा जाता है कि मुगलकाल में जिन ब्राह्मणों ने मजबूरीवश जनेऊ भंग करके उनका मैला ढोना स्वीकार किया उनको शूद्र कहा गया। जिन क्षत्रियों को शूद्रों के ऊपर नियुक्त किया गया उन्हें महत्तर कहा गया, जो बाद में बिगड़कर मेहतर हो गया।

 

भार्गव वंश में अनेक ब्राह्मण ऐसे भी थे, जो कि स्वयं भार्गव न होकर सूर्यवंशी थे। ये ब्राह्मण 'क्षत्रिय ब्राह्मण' कहलाए। इमें निम्नलिखित लोग शामिल हैं जिनके नाम से आगे चलकर वंश चला। 1. मत्स्य, 2. मौद्गलायन, 3. सांकृत्य, 4. गाग्यावन, 5. गार्गीय, 6. कपि, 7. मैत्रेय, 8. वध्रश्च, 9. दिवोदास। -(मत्स्य पुराण 149.98.100)। क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सम्मिलित हुआ, वह भरतवंशी राजा दिवोदास का पुत्र मित्रयु था। मित्रयु के वंशज मैत्रेय कहलाए और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ। भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। खैर...। 

दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बा

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