कूर्मावतार
विष्णु के प्रख्यात अवतारों में दूसरा और भागवत-निर्दिष्ट बाइस अवतारों में ग्यारहवाँ (१/३/१६) कूर्मावतार है। कहा गया है कि अमृत की प्राप्ति के लिए देव और असुर समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय विष्णु ने कूर्म-रूप धारण कर मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया था। पुराणों में कूर्म (कमठ, कच्छप कश्यप) को विष्णु का रूपान्तरण कहा गया है, पर वैदिक साहित्य में (मत्स्य की तरह ही) कूर्म भी प्रजापति का ही रूपान्तरण है।
शतपथ ब्रा. (७/५/१/५) के अनुसार कूर्म प्रजापति का रूपान्तरण है। प्रजापति ने अपत्यों की सृष्टि करते समय कूर्मरूप ग्रहण किया था-स यत् कूर्मो नाम। एतदै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजाः असृजत। 'कूर्म' को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-यदसृजत अकरोत् तत्, यदकरोत् तस्मात् कूर्मः। कश्यपो वै कूर्मः । तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति (वही) अर्थात् 'सृजन' किया था को ही कहते हैं 'किया' था। इस रूप से 'सृजन' किया था, इस कारण इस रूप को कूर्म (कृ करना औणादिक मनिन्) कहते हैं। कूर्म का ही अपर नाम कश्यप है। इसी कारण सारी प्रजा कश्यप १२१ की सन्तान कही जाती है। पाश्चात्यों के अनुसार भी कूर्मावतार का यही स्रोत है १२२।
अपत्यों की सृष्टि करने के लिए प्रजापति को कूर्म का ही रूप क्यों धारण करना पड़ा ? सृष्टि-पूर्व सर्वत्र जल था। जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। अतः अस्वाभाविक नहीं कि प्रजापति ने जल में विचरण करने योग्य 'कूर्म' रूप धारण किया। पुनः कूर्म सामान्य जलचर मात्र नहीं है। शतपथ ब्रा. के अनुसार 'कूर्म' पृथ्वी आदि सब लोकों का 'रस' है। जल में सब के निमग्न रहते ही वह उनसे निकला था। जैसे 'रस' वस्तु विशेष का सार होता है, वैसे ही 'कूर्म' भी त्रिलोकी का सार (आत्म तत्त्व) है १२३। कूर्म के त्रिलोकमयत्व को स्पष्ट करते हुए उसी में आगे कहा गया है कि कूर्म की पीठ (ढक्कननुमा ऊपरी कठोर पपड़ी) आकाश का और पेट (निचला समतल हिस्सा) पृथ्वी का द्योतक है। जैसे पृथ्वी और आकाश के मध्य सारे लोक हैं, वैसे ही कूर्म की देह भी इन दोनों (कपालों) के मध्य अवस्थित होने के कारण त्रिलोकरूप है १२४। तैतिरीय आ. में प्रजापति और कूर्म के लघु संवाद में 'कूर्म' का तादात्म्य पुरुषसूक्त (ऋक्. १०/६०) के 'पुरुष' (नारायण) से किया गया है। कहा गया है कि प्रजा-सृष्टि के लिए तपस्यारत प्रजापति के शरीर का रस निकलकर जल में 'कूर्म' हो गया। प्रजापति ने उसे कहा-तू मेरी त्वचा और मांस से उत्पन्न हुआ है। प्रतिवाद करते हुए कूर्म ने कहा कि मैं तुमसे भी पहले था, इस कारण मैं 'पुरुष' (यत् पूर्वमासम् इत्याह तस्मात् पुरुषः, सायण) हूँ। कूर्म ही सहस्रशीर्षा, सहस्राक्ष, सहस्रपात् आदि पुरुष है। प्रजापति उसकी महत्ता स्वीकार कर उससे अपत्य-सृष्टि हेतु आग्रह करते हैं। तदुपरान्त कूर्म सृष्टि करता है २५। यहाँ कूर्म का पुरुष १२६ से तादात्म्य और शतपथ ब्रा. (७/५/१/२) में उसका त्रिलोकमयत्व स्थापित किया जाना निश्चय ही अति महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर सम्भावना की जायेगी कि विष्णु से कूर्म का सम्बन्ध-स्थापन ऋग्वेदोत्तर काल में ही आरम्भ हो चुका था। शतपथ ब्रा. (१/५/१/७) में ही कूर्म को प्राणतत्त्व अर्थात् प्राणियों की चेतनाशक्ति भी घोषित किया गया है-
प्राणो वै कूर्मः। प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति ।
ऋग्वेद में 'मधु' विष्णु से सम्बद्ध है १२७। वेदो तर साहित्य-धारा में कूर्म (ब्रह्मा
का रूपान्तरण) को विष्णु का रूपान्तरण स्वीकार किये जाने का एक कारण उसे शतपथ ब्रा. १२८ .१२८ में 'मधु' से सम्बद्ध किया जाना भी माना जा सकता है। यजुर्वेद (१३/३०) में कहा गया है-हे कूर्म! जलों के गम्भीर स्थान में स्थिर हो, तुम्हें वहाँ आदित्य संतप्त न करें, वैश्वानर (सबके हितैषी) अग्नि भी संतापित न करें-
अपां गम्भन्सीद मा त्वा सूर्योऽभि ताप्सीन्माऽग्निर्वैश्वानरः । आचार्य महीधर ने इसका भाष्य करते हुए लिखा- "कूर्मदेवत्या कूर्मः प्रजापतिरादित्यो वा। ... हे कूर्म ! अपां जनानां गम्भानां गम्भीरे स्थाने रविमण्डले त्वं सीद उपविश।" अर्थात् यह मंत्र कूर्म देवता विषयक है, कूर्म यहाँ प्रजापति अथवा आदित्य का बोधक है। रविमण्डल ही उसका स्थान है। पाश्चात्य चिन्तकों को भी यह व्याख्या स्वीकार्य है १२६ । अस्तु, असम्भव नहीं कि रविमण्डल से कूर्म का आकार सादृश्य होना भी विष्णु के कूर्मावतार की कल्पना का पोषक बना हो।
ऋग्वेद के एक सूक्त (१०/१०६) के द्रष्टा भूतांश काश्यप हैं। इससे उनका स्वरूप स्पष्ट नहीं होता। वेदों में आदित्य (सूर्य) भी कश्यप कहे गये हैं। शतपथ ब्रा. (६/५/१/६; ७/५/१/६) की स्पष्ट घोषणा है-स य स कूर्मोऽसौ स आदित्यः। निरुक्तकार के अनुसार 'अकूपार' शब्द से आदित्य (आदित्योऽप्यकूपार उच्यते-४/१८/२) और कच्छप (कच्छपोऽप्यकूपार उच्यते-४/१८/६) दोनों का बोध होता है। जैमिनीय ब्रा. में 'अकूपार' कश्यप का विशेषण है-अकूपारो वै कश्यपः कलिभिः सह समुद्रम् अभ्यवैषत्... (३/२७३)। तैत्तिरीय आ. की उक्तियों कश्यपः पश्यको भवति, यत् सर्व परिपश्यति (१/८/८), ते सर्वे कश्यपाज्ज्योतिर्लभस्ते (१/७/२) में भी 'कश्यप' सूर्य का ही बोधक है। जगत्-चक्षु सूर्य के अतिरिक्त सर्वद्रष्टा और कौन हो सकता है ? जगत् के सभी प्राणी सूर्य के अतिरिक्त और किससे ज्योति (तेज) प्राप्त करते हैं ? स्पष्ट है कि इन उद्धरणों में 'कश्यप' सूर्य का ही बोधक है।
Book Name - Shri Vishnu Aur Unke Avtar_Page no -243
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