शैव धर्म पूर्व मध्यकाल के दौरान भारत में एक नए रूप और नए आयाम में विकसित हो रहा था, जिसे कालांतर में नाथ संप्रदाय अथवा हठयोग और सहजयान सिद्धि कहा गया। इस संप्रदाय में नौ नाथों को दिव्य पुरुष के रूप में माना गया, जिनमें प्रथम नाथ स्वयं भगवान शिव थे।
इस संप्रदाय का प्रचार 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मत्स्येन्द्रनाथ अथवा मच्छन्द्रनाथ के द्वारा किया गया। उनका जन्म बंगाल के एक धीबर परिवार में हुआ था। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों की यात्राएँ कीं और ‘योगिनी कौल’ नामक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका विस्तृत वर्णन उनके ग्रंथों ‘कौल’, ‘ज्ञाननिर्णय’ और ‘अकुलवीर तंत्र’ में मिलता है।
अकुल-कुल सिद्धांत और तांत्रिक परंपरा
इस सिद्धांत के अनुसार:
शिव को ‘अकुल’ और शक्ति को ‘कुल’ कहा गया।
दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है, अर्थात् एक-दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं।
इनके संयोग से ही सृष्टि की रचना होती है, और इस संयोग प्रक्रिया को मानव जीवन में उतारना ही इसका धार्मिक क्रियान्वयन है।
इस संयोग का प्रतीक स्त्री-पुरुष संबंध है, जो बौद्धों की वज्रयान शाखा से साम्यता रखता है।
इसी कारण मत्स्येन्द्रनाथ को ‘अवलोकितेश्वर’ के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया। तिब्बत में उन्हें सिद्ध लुई पाद के रूप में जाना जाता है।
‘अकुलवीर’ नामक तंत्र स्वयं शिव और बुद्ध के एकत्व को प्रकट करता है। यह स्पष्ट करता है कि इस काल में शैव और बौद्ध तंत्र एक-दूसरे के निकट आए, और इससे भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन
को एक नई दिशा मिली।
Source - Religion and Philosophy (Ancient History) (Paper - 1) e-Book for B.A. 6th Semester for all U.P. State Universities as per common syllabus of NEP-2020 By Dr. Mukesh Chandra Srivastava, Dr. Sanjay kumar · 2024