धर कुछ दिनों से उमस बहुत बढ़ गई थी। आषाढ़ में वर्षा हुई तो थी, लेकिन इतनी इ नई नहीं कि धरती के कलेजे में जमा ताप पूरी तरह शांत हो जाता। बादल उमड़ते थे। लगता था कि अब वर्षा हो जाएगी, लेकिन बरसने की जगह वे थोड़ी देर में इधर-उधर छिटककर उड़ जाते थे। रह जाती थी वातावरण में चिपचिपी गरमी और उमस।
प्रकृति की ही तरह द्वैपायन से उनके जीवन की पूर्वपीठिका के आंशिक श्रवण के बाद गणपति की उत्सुकता भी कुछ अधिक बढ़ गई थी। केवल प्रातः कर्मों के बाद एक दिन फिर गणेशजी ने द्वैपायन को घेरा और पूछा, "भगवन्! आपके जन्म की कथा उस रात अधूरी ही रह गई थी। उसके बाद क्या हुआ?"
"ज्यादा कुछ नहीं, " द्वैपायन बोले, "विघ्नेश्वर ! पहले तो प्रसव की व्यवस्था का कार्यक्रम किसी दूरस्थ स्थान के लिए बना। शायद यह योजना रही होगी कि प्रसव के बाद नवजात शिशु को वहीं किसी को सौंपकर माँ को नाना ले आएँगे, लेकिन माँ के प्रबल विरोध के कारण इस योजना का परित्याग मेरे मातामह को करना पड़ा। अंततः यमुना के तटवर्ती उसी गाँव में मेरा जन्म हुआ।
"इसके बाद दो-तीन वर्षों तक ऐसी कोई घटना नहीं घटी, जो उल्लेखनीय हो। मेरे प्रति परिवार की, विशेष रूप से नाना की कुत्सित धारणा को जानती हुई माँ क्षण भर के लिए भी मुझे आँख से ओझल नहीं होने देती थीं। लेकिन तीन-चार वर्ष की अवस्था होने पर, मैं जब गाँव के दूसरे लड़कों के साथ घूमने-फिरने लगा, खेलने-कूदने लगा, तो मुझे माँ से अलग करने की चेष्टाएँ बढ़ गईं। कुमारी कन्याओं की संतानोत्पत्ति उस गाँव के लिए कोई बड़ी बात न थी, क्योंकि ऐसी घटनाएँ तो वहाँ प्रायः होती ही रहती थीं। बात थी माँ को किसी अच्छे राजवंश में पहुँचाने की। निषादपल्ली के लोगों की भाषा में कहूँ तो माँ के विक्रय की, जो उनके साथ मेरे जुड़े रहने पर असंभव था और इसके लिए नाना आए दिन नई-नई तरकीबें सोचते रहते थे। उनके कुछ दुष्ट किस्म के सेवकों को इसके लिए मेरी हत्या का सुझाव देने में भी कोई संकोच नहीं होता था। यमुना की बाढ़ में मुझे बहा देने की भी योजनाएँ बनीं, लेकिन माँ की सतर्कता से मेरा जीवन सुरक्षित रहा।
"पाँच-छह वर्ष की उम्र होने पर नाना ने मुझे भी परंपरागत मत्स्य-व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया। गणपतिजी! आज शायद आपको यह विचित्र लगे, लेकिन वास्तविकता यही है कि मेरा बचपन कच्ची मछलियों की दुर्गंध सहते ही बीता। घर-बाहर और यमुना के तट पर सभी जगह नाना के मत्स्य-भंडार थे, जहाँ नाना के सेवक उनके संरक्षण और विक्रय में निरंतर संलग्न रहते थे। माँ ने नाना के इस व्यवसाय से मुझे भी
जोड़ने के प्रयत्न का विरोध किया। अब वह वेला आ गई थी, जब उन्होंने मेरे जनक का नाम उद्घाटित कर देना ही उचित समझा। एक दिन नाना को कुछ प्रसन्न मुद्रा में देखकर उन्होंने कहा, 'दादा! कृष्ण (अब तक मुझे माँ 'कृष्ण' नाम दे चुकी थीं) महर्षि पराशर का अंश है। उसे अपने व्यवसाय से न जोड़िए। उसे उसके पैतृक कर्म में ही लगाना है।' ऋषि का नाम सुनते ही नाना भड़क गए। बोले, 'तो यह करतूत उस जटाजूटधारी की है! बाना है ऋषि-मुनि का और ऐसा कुकर्म! हमें जल्दी ही उसे ठीक करना होगा!'
"माँ उसी दिन, छिपती-छिपाती हुई मेरे जनक ऋषि पराशर के आश्रम में पहुँच गईं। नाना की धमकी से ऋषि को अवगत कराया। आश्रम में दो-चार लोग ही उस समय थे, वे पोथी-पत्रा बटोरकर चलते बने। पशुओं को खोल दिया गया। चलते समय शीघ्र ही महर्षि ने मुझे अपने साथ ले जाने का वचन भी माँ को दिया।
"लेकिन वह वेला आती, उससे पहले ही सब उलट-पलट गया। अगले ही दिन रात में नाना और उनके दुस्साहसी सेवकों ने आश्रम में आग लगा दी। फूस की वे झोंपड़ियाँ जल गईं। बरतन-भाँड़े आग लगानेवाले उठा ले गए। कल तक जहाँ पठन-पाठन, ध्यान और उपासना तथा अग्निहोत्र के धुएँ की धूम थी, अब वह स्थान मरघट-सा दिखने लगा। माँ को जब यह समाचार मिला, तो वे विक्षिप्त-सी हो उठीं। मेरे जीवन में ज्ञान का प्रकाश लाने की जो क्षीण सी आशा थी, उस पर भी तुषारपात हो गया था। माँ पर अब नाना का अंकुश और बढ़ गया। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मुझे उन्हें अपने व्यवसाय में, जैसे भी बने, लगाना ही है। माँ की आपत्ति का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था।
"गणपति! लेकिन माँ भी हार नहीं मानना चाहती थीं। पिताजी की प्रतीक्षा संभव नहीं थी, इसलिए जी कड़ा करके यमुना में स्नान करने के बहाने माँ एक दिन पराशर आश्रम से कोस भर दूर एक दूसरे आश्रम में मुझे ले गई। वहाँ मुझे छोड़कर, बड़े गुरुजी से अनुनय-विनय करके शीघ्र ही अकेले लौट भी आईं। आश्रम के गुरुजन निषादपल्ली का नाम सुनकर, तो आश्रम में मुझे रखने से कुछ हिचक रहे थे, लेकिन माँ के तेजस्वी व्यक्तित्व के प्रभाव से उनकी हिचक समाप्त हो गई। गाँव-घर में उन्हें अकेले लौटी देखकर शायद खुशी ही होगी- उनके लाभ के मार्ग से अड़ा एक दुर्निवार्य काँटा जो निकल चुका था।
"विघ्नेश्वर! मेरे जीवन का नया क्रम आरंभ हुआ। गाँव के जीवन से आश्रम का जीवन बहुत भिन्न था। शांति, सद्भाव, सौमनस्य और संस्कार के इस वातावरण में मुझे जैसे पुनरुज्जीवन मिला। माँ का अभाव तो खटकता था। उनकी याद में अकसर नेत्र भी डबडबा जाते थे, लेकिन मन में यह भरोसा भी था कि मुझे पढ़ने-लिखने में लगा देखकर
माँ को मानसिक शांति और संतोष ही मिलेगा। पूर्णमासी और अमावस को नदी-तट पर जुटनेवाले श्रद्धालुओं के बीच कभी-कभी माँ से भेंट भी हो जाती थी। आश्रम के गुरुजन और साथी ब्रह्मचारी सभी बड़े भले थे। मैं नया ब्रह्मचारी था, इसलिए मेरे शिक्षण-प्रशिक्षण में थोड़ी कठोरता तो थी, लेकिन कटुता और क्रोध का कण भी नहीं था। बिना कलह, कटुता और अविश्वास के भी जीवन जिया जा सकता है, विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा जा सकता है, यह मैंने जीवन में प्रथम बार यहीं अनुभव किया। कुछ ऋषियों और गुरुजनों के अपने परिवार भी थे, लेकिन वे भी आश्रम के दैनंदिन कार्यक्रमों में समरस ही दिखते थे। सहयोग और सहकारिता आश्रम की संरचना के मूल तत्त्व थे। बड़े गुरुजन वरिष्ठ छात्रों का अध्यापन करते थे और वरिष्ठ छात्र कनिष्ठ छात्रों का। इस आश्रम में मैं पाँच-छह वर्ष रहा। जब तक यहाँ रहा, माँ से भेंट-मुलाकात होती रही।
"एक दिन माँ अचानक एक प्रौढ़ जटाधारी साधु को साथ लेकर आईं। उन्हें आश्रम में प्रायः सभी पहचानते थे। इतने दिन वे कहाँ रहे, यह जानने की उनमें बड़ी उत्सुकता थी। मुझसे माँ बोली, 'कृष्ण ! यही तेरे पिताजी हैं- ऋषिवर पराशर।'
"मेरे लिए यह बड़ी अप्रत्याशित स्थिति थी- कुछ उलझन भरी। ऋषि पराशर का माँ के साथ हुआ संबंध तत्कालीन मान्यताओं के अनुरूप नहीं था। इतना तो मैं उस कच्ची उम्र में भी समझ सकता था। इस संबंध की चर्चा गाँव के साथ पास के आश्रमों में भी पहुँच चुकी थी और अभी तक लोगों के मन में उसकी स्मृति थी। इसलिए ऋषि पराशर के मन में मुझे देखने की उत्सुकता तो थी, लेकिन उनके व्यवहार में वह ललक नहीं थी, जो सामान्यतः पिता से अपेक्षित होती है। आश्रम के लोगों ने वैसे उनके प्रति शिष्टाचार ही प्रदर्शित किया, लेकिन कुछ आँख मिचौनी सी स्थिति भी दोनों ओर से ही रही। माँ के साथ संबंध की इस घटना ने उनके सम्मान में कुछ कमी ला ही दी थी। वे स्वयं भी इसे समझ रहे थे। यद्यपि इसमें उनका दोष नहीं था। संबंध की उस स्थिति के निर्माण में पिता का तीव्र रूप से ज्वरग्रस्त होना, उनकी ठंड और कँपकँपी का न दूर होना, उनकी सेवा में संलग्न माँ की इससे चिंता और ऋषि को राहत पहुँचाने के लिए माँ का आत्मसमर्पण करना- इसी घटनाक्रम की मुख्य भूमिका थी। लेकिन यह घटना आसपास अपने स्वाभाविक रूप में न प्रचारित होकर, कुछ चटपटे और ऐसे रसीले ढंग से फैली या फैलाई गई थी, जिसमें ऋषि की वासना-विह्वलता, कामुकतापूर्ण रतियाचना, कुमारी कन्या को अपनी वासना के जाल में शब्दों की बाजीगरी से फँसाना, झूठे आश्वासन देना, कोहरा फैलाने का चमत्कार दिखाना, रतिक्रिया के बाद भी कौमार्य का सुरक्षित रहना, शरीर से कच्ची मछली की गंध का दूर हो जाना इत्यादि अफवाहों का ज्यादा समावेश था। माँ-पिताजी के इस संबंध में माँ की रोगी के प्रति गहरी संवेदना और मानवीय कर्तव्यशीलता पूरी तरह ओझल हो गई थी। आश्रम में ऋषिवर दो-तीन दिन
रहे। वहाँ के आचार्यों से मेरे बौद्धिक विकास की कुछ जानकारी भी उन्होंने ली, लेकिन जाते समय जब माँ ने उनसे मुझे भी साथ ले जाने का आग्रह किया, तो उसे उन्होंने अत्यंत नम्रता, समझदारी और कुशलता से टाल दिया। बोले, 'सत्या! अभी मैंने कोई स्थायी आश्रम नहीं बनाया है। यहाँ से जाने के बाद, बस एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहने का ही क्रम चल रहा है। जहाँ जाता हूँ, मुझसे पहले ही वहाँ मुझसे जुड़ा प्रवाद पहुँच जाता है। स्पष्टीकरण देने का क्रम अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में कृष्ण को साथ ले जाना क्या उचित होगा? यहाँ के गुरुजनों से बातचीत के माध्यम से कृष्ण की बौद्धिक प्रतिभा का जो विवरण मैंने प्राप्त किया है, वह असंतोषजनक नहीं है। इसे थोड़े दिन अभी यहीं रहने दो। आगे देखेंगे। अब मेरा यहाँ आना-जाना तो बना ही रहेगा।' माँ की आँखें आँसुओं से लबालब भरी थीं; लेकिन उनके सामने दूसरा विकल्प भी तो नहीं था।
"चरने के लिए बाहर गईं आश्रम की गायें लौट आई थीं, मुझे उन्हें सँभालने में सहयोग करने के लिए जाना पड़ा। थोड़ी देर बाद जब मैं लौटा, तो ज्ञात हुआ कि पिताजी जा चुके थे और माँ अवसादग्रस्त-सी आश्रम के द्वार को टकटकी लगाकर निहारती जा रही थीं। शायद सोच रही थीं कि इस प्रतीक्षा का अंत कब होगा?
"आश्रम से माँ के लौटने और दृढ़ता से यह कह देने पर कि वे वहाँ आए ऋषि पराशर से मिलने गई थीं, घर में फिर भूचाल आ गया। पूरी बात बिना सुने ही नाना और उनके सहयोगी निषादजन लाठी-डंडों और घरेलू अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर उस आश्रम पर जा धमके। उनका उद्देश्य था- पराशर ऋषि को दंडित करना। वे तो उन्हें वहाँ नहीं मिले, लेकिन मैं दिख गया। नाना के संकेत पर कुछ निषादजनों ने आगे बढ़कर मुझे पकड़ लिया और शेष ऋषि पराशर को आश्रय देने के अपराध में आश्रम को तहस-नहस करने में लग गए।
मुझे शिक्षित करने का माँ का तत्कालीन एकमात्र सपना भंग हो गया-
कहते-कहते द्वैपायन की आँखों में कुछ आँसू छलक उठे। कंठ अवरुद्ध हो गया। शायद उनके बचपन की एकमात्र मधुर और सुखद स्मृति के आसन पर माता सत्यवती अभी तक विराजमान थीं।
"दोनों ही आश्रमों के विध्वंस के प्रसंग द्वैपायन की दुःखद और कटु स्मृतियों के अनन्य अंग थे। पराशर-आश्रम उनके पितृपक्ष की कई पीढ़ियों के अनवरत अध्यवसाय और तपोज्ञान-साधना का परिणाम था, जिसकी प्रतिष्ठा दूर-दूर तक थी। ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के शिक्षण और प्रशिक्षण की उसमें व्यवस्था थी। विशाल पुस्तकालय था। गोशाला थी। उसमें शिक्षा-प्राप्त स्नातकों की विश्वसनीयता असंदिग्ध थी। इनमें से अनेक छोटे-बड़े राज्यों में मंत्रिपदों को भी सुशोभित कर रहे थे। दूसरे आश्रम का विध्वंस
इसलिए दुःखद था कि उसके वे स्वयं कुछ वर्षों तक छात्र रहे थे। वहाँ गुरुजनों का इतना स्नेह-प्रेम मिला था कि गाँव में किए गए असंख्य अत्याचार वे भूलने लगे थे।
"अब वे फिर वहीं पहुँच गए थे, जहाँ जीवन के किसी बड़े उद्देश्य के विषय में विचार तक नहीं किया जा सकता था। वहाँ न अग्निहोत्र की मनहर सुगंध थी और न दोनों समय की संध्योपासना में बोले जानेवाले पवित्र मंत्र सुनाई देते थे। विनायक ! नाना ने इस बार कोई सोच-विचार नहीं किया और सीधे मुझे मत्स्य व्यवसाय में धकेल दिया। एक वर्ष बीत गया बिना किसी बौद्धिक विकास के। हाँ, अब मछलियाँ पकड़ने, उन्हें गुणवत्ता के आधार पर अलग-अलग टोकरों में सजाकर रखने और बेचने में मैं पर्याप्त कुशल अवश्य हो गया था। मत्स्य-व्यापार में संलग्न दूसरे बहुसंख्यक लोगों के अश्लील हास-परिहास और गाली-गलौज सहने का भी अभ्यस्त हो गया था। अब ये सब मुझे उतना कष्ट नहीं पहुँचाते थे।
"लेकिन माँ से मिले संस्कार फिर जोर मार रहे थे। एक दिन आधी रात के कुछ बाद मैंने चुपचाप माँ का आशीर्वाद लिया और अकेले ही निशीथ के तारों की छाँव में निकल पड़ा अज्ञात पंथ पर; कहीं दूरस्थ आश्रम या विद्यापीठ में पुनः ज्ञान का आलोक पाने के लिए। चलता ही रहा रात भर। भोर हो गई। पैर जवाब दे रहे थे, फिर भी चलता रहा-मन में नाना के आदमियों के द्वारा की जा रही खोजबीन का भय था। पूछताछ में माँ को कहीं यंत्रणा न दी जाए, इसकी आशंका थी, लेकिन नाना की लोभी प्रवृत्ति के विषय में सोचकर शीघ्र ही यह आशंका दूर हो गई।
"रास्ते में मिले एक मंदिर के परिसर पर बने कुएँ पर लोगों को नहाते-धोते देखा। किसी से रस्सी-डोल मँगाकर नित्य-कृत्यों से निवृत्त हुआ। कुछ धनी-मानी भक्त मंदिर के बाहर जुड़े साधुओं और भिखारियों में दानस्वरूप खाद्य सामग्री बाँट रहे थे। मैंने भी पंक्ति में लगकर जैसे-तैसे प्राप्त कुछ भोज्य-सामग्री से क्षुधा शांत की। संभ्रांत दिख रहे लोगों से आसपास के किसी आश्रम या विद्यापीठ के विषय में पूछा। पता चला कि वहाँ से चार-पाँच कोस पर कोई आश्रम है, जहाँ बहुत से छात्र पढ़ते हैं। विघ्नेश्वर ! प्रसन्नचित्त यह द्वैपायन फिर निर्दिष्ट दिशा में बढ़ चला।
"दिन ढलते-ढलते वहाँ मैं पहुँच गया। आश्रम के प्रांगण में दिखे छात्रों से बड़े गुरुजी की कुटिया पूछी। ज्ञात हुआ, वे तो इस समय संध्या-पूजा में संलग्न हैं। दो-ढाई घड़ी बाद ही मिलेंगे। वह समय भी आ गया। मुझसे पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर से आश्वस्त गुरुजी ने वहाँ रहने की उस समय अनुमति दे दी, लेकिन अगले दिन नई समस्या से सामना हुआ। कुल-गोत्र का परिचय देने के क्रम में ऋषि पराशर का नाम आने पर उनके विषय में प्रख्यात प्रवाद फिर आड़े आ गया। पराशर और सत्यवती के संबंध पर गुरुजनों के मध्य पक्ष और विपक्ष में देर तक चर्चा तो हुई, लेकिन इस बात
पर सहमति बन गई कि उसकी सजा मुझ द्वैपायन को क्यों दी जाए? अब द्वैपायन के साथ ही पाराशर के रूप में मेरा नया नामकरण हो गया।
"अध्ययन का क्रम पुनः प्रारंभ हुआ। प्रभुप्रदत्त मेधा, प्रतिभा और परिश्रम के बल पर शीघ्र ही मैं गुरुजनों का कृपापात्र हो गया। अन्य अनेक शास्त्रों में निष्णात इस द्वैपायन को वेद पढ़ाने से पहले आश्रम में फिर विवाद उठा- 'क्या निषाद-कन्या के पुत्र को वेद पढ़ाना उचित होगा?' उनसे कहा भी गया कि अन्य शास्त्र वे पूर्ववत् पढ़ते रहें, लेकिन वेद पढ़ने का आग्रह न करें। लेकिन मैं वेद पढ़ने के अपने आग्रह पर अडिग रहा। धर्मशास्त्र की पोथियाँ मथी गईं, लेकिन इसका समाधान नहीं मिला। अंततः विनायक ! एक वेदमंत्र में ही उठाए गए इस प्रश्न का उत्तर उन्हें मिल गया। वह वेद मंत्र था- 'यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः उत शूद्र उतार्ये' वेदों की यह कल्याणी वाणी, हम आर्य और शूद्र को समान रूप से सुनाएँ।
"निषादों को तब तक शूद्र ही माना जाता था। माता सत्यवती की वास्तविकता के विषय में उस समय तक कोई जानता नहीं था, लेकिन इस मंत्र ने मुझे वेदाध्ययन से वंचित होने से बचा लिया। आगे वेदों के वर्गीकरण और प्रचार-प्रसार का जो बड़ा काम मेरे हाथों से हुआ, वह उसी के कारण संभव हो सका।
"विघ्नेश्वर ! निषाद वंश के साथ अपने संबंधों को मैंने कभी छिपाया नहीं। पिता महर्षि पराशर के कारण यद्यपि मेरे ब्राह्मणत्व के विषय में आगे प्रश्न नहीं उठे, लेकिन मैंने स्वयं कभी अपने को ब्राह्मण घोषित नहीं किया, क्योंकि मेरा विश्वास तो गुणकर्मानुसारी वर्ण-व्यवस्था में ही था, जिसकी पुष्टि श्रीकृष्ण के द्वारा होने पर मैंने 'भगवद्गीता' में उसका उल्लेख भी किया- 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण-कर्म विभागशः ।'
"विनायक! आगे चलकर जब मेरे महात्मापन की ख्याति कुछ बढ़ गई, तो जन्मना वर्ण-व्यवस्था के आग्रही कट्टर लोगों की मानसिकता में भी कुछ परिवर्तन आया। विद्या-बुद्धि के क्षेत्र में मेरी कीर्ति को देखकर वे मुझे निषाद न कहकर 'धीवर' (अत्यंत बुद्धिमान) कहने लगे और फिर तो संपूर्ण निषाद-समुदाय ही 'धीवर' कहलाने लगा। इतना ही नहीं, मेरे प्रयत्न से जब निषाद-कुल के कुछ नौजवान भी वेद-शास्त्र में निष्णात हो गए, तो 'पञ्चमो निषादः' कहकर उपनयन, यज्ञोपवीत धारण और यज्ञानुष्ठान में भाग लेने का अधिकार भी निषादों को धर्मसूत्रों में प्रदान कर दिया गया। विघ्नेश्वर ! उस आश्रम में दस-बारह वर्ष तक रहकर शिक्षा पाने के बाद जब मैं पुनः गाँव गया, तो स्थितियों में बहुत परिवर्तन हो चुका था, जिसकी जानकारी दूरस्थ आश्रम में रहने के कारण मुझे नहीं मिल सकी थी।
"आश्रम में इतनी लंबी अवधि बिताने के बाद, वहाँ से अलग होने की संभावना भर मन को विषादग्रस्त कर रही थी। गुरुजनों, अग्रज एवं अनुज छात्रों तथा अन्य सहवासी
जनों से इतनी आत्मीयता, प्रेम और सद्भाव मिला था कि मन कर रहा था कि जीवन भर यहीं रह जाऊँ। शीघ्र ही, वह घड़ी आ गई, जिसे सोचना भी कष्ट देता था।
"समावर्तन की तिथि निर्धारित हो चुकी थी। स्नातकों में घर लौटने का उत्साह था। संस्कार के दिन आठ तीर्थों के पवित्र जल से स्नान के बाद, दीक्षांत उपदेश संपन्न हो गया। कुलपति (जिन्हें हम सब श्रद्धावश 'बड़े गुरुजी' कहकर पुकारते थे) ने अपने पास हम सबको बुलाकर कहा, 'अब तुम सभी की शिक्षा-दीक्षा संपन्न हो चुकी है। घर जाओ और जीवन के कर्मपथ पर अग्रसर हो जाओ। अपनी संस्कृति और पवित्र साहित्य के संरक्षण, विकास और प्रसार का बहुत बड़ा दायित्व तुम्हारे कंधों पर है।' आँसू उनकी आँखों में भी छलक आए थे। विदाई की वेला त्रासदायिनी होती है। यह पहली बार तब अनुभव हुआ था, जब माँ की आज्ञा से, पढ़ने की ललक लिये आधी रात में गाँव-घर से भागा था। लेकिन तब विद्या पाने के लिए माँ ने ही घर छोड़ने का निर्देश दिया था। एक उद्देश्य था सामने और अब जब वह पूरा हो गया था, तो सामने बस शून्य-ही-शून्य था। माँ से मिलने की ललक तो थी, लेकिन यह अफवाह इस आश्रम तक भी कर्णाकर्णि पहुँच चुकी थी कि निषादों के उस गाँव की एक कन्या का विवाह हस्तिनापुर के महाराज के साथ कुछ वर्षों पूर्व ही हो गया था। जहाँ तक मुझे स्मरण है, गाँव में माँ के अतिरिक्त ऐसी कोई दूसरी कन्या नहीं थी, जिसे कोई राजपुरुष पसंद करता। यह अपुष्ट वृत्तांत तो माँ के संदर्भ में ही घटित प्रतीत होता था, जिसकी सच्चाई जानने का आश्रम में कोई अवसर ही नहीं था। यदि यह सच है तो गाँव जाने का अब कोई अर्थ ही नहीं रहा था। माँ के अभाव में कैसा घर, कैसा गाँव! कोई भी तो ऐसा नहीं था, वहाँ जिसे मेरी प्रतीक्षा होती!
"आश्रम से निकलने के बाद मैं पूरी तरह अनिकेत और अपरिग्रही हो गया था। बिल्कुल अकेला!
"जीवन का अगला सोपान, दूसरा पड़ाव क्या, कैसा और कहाँ है, कुछ भी पता नहीं था। सबकुछ अनिश्चय के गर्भ में था।
"विनायक ! फिर भी मन में एक क्षीण-सी आशा थी कि शायद माँ के विवाह का समाचार असत्य हो, वह कोई दूसरी कन्या हो, जिसकी जानकारी गाँव में रहते समय मुझे न हुई हो।
"आशा की इसी रेशमी डोर के सहारे कुछ हिम्मत बँधी। पैर आगे बढ़ चले। साथ में, पाथेय के रूप में थी थोड़े से चने चबेने की पोटली, एक धोती और उत्तरीय, कंधे पर लोटा-डोरी। माँ की स्मृतियाँ मानस में कौंध रही थीं, वास्तविक पाथेय तो वही थीं। चलते-चलते, अंततः यमुना की वह रेती दिख ही गई, जिसमें लोटकर मैं बड़ा हुआ था। गाँव के पास बहती हुई यमुना की यह धारा बहुधा मुझे दूसरी माँ की तरह लगती थी।
और अब सामने गाँव था, लेकिन उससे पहले यमुना के दूसरे किनारे पर, लगभग आधा कोस की दूरी पर कुछ शिविर लगे थे। लगता था कि किसी बड़े राज्य का कोई विशिष्ट अधिकारी आया हुआ है।
"जैसे-तैसे साहस जुटाकर गाँव में प्रविष्ट हुआ। साँझ का झुटपुटा अँधेरा था। जाड़े का मौसम होने के कारण घरों के बाहर, गलियों में मुझे पहचाननेवाला कोई नहीं मिला। फिर अब मैं लंबी जटा और दाढ़ीवाला था। किसी तरह याद कर उस घर के सामने जा पहुँचा, जहाँ मेरे बचपन के कुछ वर्ष बीते थे। हिम्मत करके कुंडी खटखटाई। द्वार खुला, नाना स्वयं बाहर आ गए थे। मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, लेकिन शायद वे तुरंत मुझे पहचान नहीं पाए। वे भी तो अब कितने बदल गए थे! जर्जर बुढ़ापे ने उनकी कमर झुका दी थी। मेरे बोलने पर जब उन्होंने मुझे पहचाना, तो लगा कि मेरे आने से वे प्रसन्न नहीं हुए। बोले, 'अरे, तुम कैसे आ गए? तुमने आकर अच्छा नहीं किया। जहाँ से आए हो, वहीं लौट जाओ। इस घर में अब तुम्हारे लिए जगह नहीं है।' और द्वार पूर्ववत् बंद हो गया। मैंने इस स्वागत की अपेक्षा नहीं की थी। सोच रहा था कि शायद ये मेरे घर से भागकर आश्रम चले जाने से अब तक नाराज हैं। तभी द्वार फिर खुल गया। इस बार सामने नाना नहीं, बल्कि नानी थीं, जो नाना से मेरे आने का समाचार पाकर बाहर आ गई थीं। आते ही उन्होंने गले लगा लिया, फिर कुछ भारी गले से बोलीं, 'अब तुम्हें हम लोगों की याद आई ! खैर, अब तो तुम बहुत पढ़-लिख गए होगे। चलो अंदर।'
"नानी से जैसी आत्मीयता मिल सकती थी, मिली। सारे मामा, उनके बेटे और बहुएँ पास के दूसरे घरों में रहने लगे थे। नाना चिड़चिड़े तो पहले ही थे, अब कुछ सठिया भी गए थे। नानी से ही पता लगा कि मेरी माँ के विवाह का समाचार सत्य था। यह घटना मेरे घर छोड़ने के एक वर्ष बाद ही घट गई थी। उनका विवाह हस्तिनापुर राज्य के महाराज शांतनु से हुआ था और आजकल वे यमुना-स्नान के लिए अकेली ही दास-दासियों के साथ आई हुई हैं। गाँव के घर में तो वे नहीं आई; लेकिन नानी स्वयं जाकर एक-दो बार उनसे मिल चुकी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मेरा उनसे मि लना ठीक नहीं होगा। फिर स्वयं कुछ सोचकर बोलीं, 'कृष्ण! मैं तुम्हारी माँ से कल सवेरे पूछकर तुम्हें बताऊँगी कि तुमसे वे मिलना चाहती हैं कि नहीं? और यह भी कि माँ से तुम्हारी भेंट किस प्रकार हो सकती है?' विनायक! नानी स्त्री और माँ होने के कारण माँ-बेटे की भावनाओं से परिचित थीं, इसलिए नाना की अपेक्षा उनमें सहृदयता स्वभावतः अधिक थी।
"मैं मर्माहत तो था ही, कुछ आशंकित भी था कि इतने बड़े राज्य के महाराज की महारानी हैं अब माँ। उनके विवाह के समय मेरी स्थिति अवश्य छिपाई गई होगी और अब वे अपने कौमार्य-काल की संतान के प्रति क्या पूर्ववत् ममतायुक्त होंगी? प्रश्न तो
कि माँ से मिलने के लिए मुझे ब्रह्मचारी साधु के रूप में आशीर्वाद देने हेतु जाना है।
"कितनी विचित्र बात थी ! जिनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मैं आया हूँ। लालायित हूँ; परंतु उन्हें मुझे आशीर्वाद देने जाना है। स्थितियाँ वास्तव में ही अब बहुत भिन्न थीं। भूमिकाएँ बदल चुकी थीं। माँ-बेटे के बीच में एक महान् राज्य की महारानी की गरिमा दीवार बनकर खड़ी थी। एक बड़े राजवंश की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी था। अस्तु, माँ के द्वारा नानी को दिए गए समय पर मुझे मिलाने के लिए ले जाया गया। राजकर्मचारियों को मेरा परिचय एक सिद्ध ब्रह्मचारी महात्मा के रूप में दिया गया था, जो आशीर्वाद प्रदान करने के लिए आए थे।
"माँ से मेरे मिलन के समय उनके निजी शिविर को पूरी तरह रिक्त करा दिया गया था। उस एकांत में माँ ने ललककर मुझे गले से लगा लिया। अश्रुसिक्त नयनों से बोलीं, 'कृष्ण! तू आ गया! मुझे यमुना-पूजा का फल मिल गया।'
"फिर कुछ संयत होकर बोलीं, 'अरे! तू तो कितना बड़ा हो गया है रे! अब तो पूरा महात्मा लग रहा है। बोल, मैं तेरे लिए क्या कर सकती हूँ? हस्तिनापुर की राजसभा में राजपंडित के रूप में मैं तुझे नियुक्त करा सकती हूँ। चाहे तो वहाँ तू अपना विद्यापीठ या आश्रम बना सकता है। राज्य से जो भी सहायता चाहेगा, सब मिल जाएगी।'
"माँ से इतने वर्षों बाद मिलने पर मैं भी भाव-विभोर था। सेवक ने दूध, फल, मिठाई और मेवे लाकर रख दिए थे। उसके बाहर चले जाने पर माँ उठा-उठाकर आग्रहपूर्वक स्वयं खिला रही थीं। दबी हुई ममता महारानी की पद-गरिमा से ऊपर आ गई थी। कुछ देर बाद जब हृदय-सिंधु में उमड़ रहे भावों का ज्वार कुछ थमा, तो पता नहीं, अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से मेरे मुँह से कुछ शब्द निकले, 'माँ, आप मिल गईं, यही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। मुझे तो बस आपका आशीर्वाद चाहिए, हस्तिनापुर राज्य की सहायता नहीं। मैं यमुना तट के आसपास, यहीं कहीं एक छोटी-सी पाठशाला चलाऊँगा। वह भी किसी राज्य नहीं, समाज की सहायता से; अपने श्रम और अध्यवसाय से।' मेरा आत्मविश्वास देखकर शायद माँ को प्रसन्नता और निश्चिंतता दोनों ही हुई। धीरे से बोलीं, 'हाँ कृष्ण ! फिलहाल यही ठीक रहेगा, लेकिन विवाह कर लेना। हो सके तो तू वहीं एक आश्रम की पुनः स्थापना कर, जहाँ तेरे पिताजी का आश्रम था। मैं कभी बुलाऊँ तो तू आएगा न?'
'हाँ, माँ! जब आपकी आज्ञा होगी, मैं उपस्थित हो जाऊँगा।' यह कहकर मैं उठ पड़ा। छलछलाई आँखों से माँ ने मुझे विदाई दी। चलते समय उन्होंने सोने के सिक्कों की एक थैली दी, जिसे मैंने नम्रतापूर्वक उन्हें लौटा दिया। माँ को शायद यह अप्रिय भी लगा हो, लेकिन उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। यमुना के घाट से माँ के बिना किसी विघ्न-बाधा के सकुशल हस्तिनापुर लौट जाने पर नानी के साथ नाना भी निश्चिंत हो गए थे।
मेरे आ जाने के कारण वे जिस संकट की संभावना कर रहे थे, उसके टल जाने के कारण, मेरे प्रति उनका व्यवहार भी सामान्यतः मधुर हो गया था। माँ के अनुग्रह से उनके भौतिक वैभव में भी विपुल वृद्धि दिख रही थी - निषादपल्ली में तो वे पहले ही बड़े आदमी थे, अब महाराज शांतनु के श्वसुर होने के कारण पूरे क्षेत्र में उनका दबदबा बढ़ गया था। मेरे आश्रम-निर्माण में भी सहायता करने के लिए वे तैयार थे। लेकिन उनका सुझाव था कि मैं निषादपल्ली से पर्याप्त दूरी बनाए रखते हुए आश्रम-स्थापना करूँ, ताकि मुझे लेकर माँ को किसी अप्रिय प्रवाद का सामना न करना पड़े। कितने सजग थे नाना! शायद यही सांसारिकता का यथार्थ था- यही दुनियादारी का आग्रह भी था।"