प्रिय पाठको, बाबा कालू का मौखिक वृतांत अस्मरणीय काल से कश्यप समुदाय में ही नहीं बल्कि दूसरे लोगों में भी प्रचलित है। कहते हैं कि बाबा कालू नारद के गुरु थे। वे जंगल में रहते तथा प्रतिदिन किसी सरोवर में मछली, फल-फूल आदि तोड़ कर लाया करते । कहते हैं जब ब्रह्मा आदि देवताओं ने नारद को बेगुरा अस्वच्छ कहकर अपने यहां से निकल जाने को कहा तब लज्जित हुए नारद ने रोते-राते देवताओं से पूछा कि हे प्रम पूज्य महान आत्माओं, मुझे ये बताइए कि मैं अब कहां जाऊं और किसे गुरु बनाऊं ताकि मैं आपके निकट रह सकूं। तब उन्होंने बताया कि अब तेरा जंगल में जाने के सिवाय कोई ठिकाना नहीं है। वहां प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति मिले उसी को गुरु बना लेना, उसी से तेरा कल्याण होगा। उसी के बताए रास्ते से हमारे निकट आ सकते हो अन्यथा नहीं। इतना सुन नारद वहां से चल पड़ा। भटकते-भटकते कई दिन के पश्चात् प्रातः कालू का मिलन हुआ। तब नारद ने चरण स्पर्श कर कालू जी से वंदना की कि हे महाराज मैं आपको गुरु बनाना चाहता हूं। आप मुझे शिषय कह आशीर्वाद देने की कृपा करें। इतनी बात सुन कालू ने नारद को पुचकारते हुए कहा कि पुत्र घाबराने की आवश्यकता नहीं। शांतिपूर्वक अपना परिचय दो। आपका इस उम्र में इस तरह जंगल में भटकने का क्या कारण है ? तब नारद ने रोते हुए बताया कि मैं ब्रह्मा आदि देवताओं की दासी का पुत्र हूं। जब तक मेरी मां जीवित रही तब तक मुझे किसी ने बेगुरा अस्वच्छ नहीं कहा परन्तु अब मेरी माँ का निधन होने के पश्चात उन देवताओं ने मुझे अपने यहां से निकाल दिया। इसलिए मुझे यहां आने और गुरु बनाने की आवश्यकता पड़ी। यह सुन कालू ने कहा कि यदि मुझे गुरु मानने से तेरा कल्याण होता है तो जा कह दे कि मुझे मेरा गुरु मिल गया है। जब नारद लौट कर गया तो देवताओं ने पूछा कि तुझे गुरु मिला? तब नारद ने जवाब दिया कि मिला तो परन्तु ना के बराबर। ये सुनकर देवता बोले कि जा निकल जा यहाँ से । तूने गुरु का अपमान किया है। अब तू लख चौरासी योनियाँ भोग और पुनः जन्म ले तब गुरु के बताए रास्ते से हमारे निकट आ सकता है अन्यथा नहीं। इतना सुन नारद वहीं लौट गया और कालू जी से क्षमा मांगते हुए सब हाल बताया। कालू जी ने फिर उसे नादान समझ कर क्षमा किया और लख चौरासी योनियाँ भोगने के लिए योगाभ्यास, ध्यान और धारणा के साथ समाधि में शरीर का त्याग तथ पुनः जीवित होने की शिक्षा दी और कहा कि जा अब तू लख चौरासी बार नहीं कई लख चौरासी योनियों में जाके पुनः जीवित हो सकता है। और उनसे पूछते जाना, वह जिस योनि में कहें जाकर लौटते रहना। तब नारद ने ऐसा ही किया। इस प्रकार कालू द्वारा नारद को बताई विधि का देवताओं पर महाप्रभाव पड़ा और कहने लगे, हे नारद आपका गुरु कोई जन साधारण प्रतीत नहीं होता। किसी दैविक शक्ति का प्रतीक है। लोग कहते हैं कि उनमेंपाँच पीरों अर्थात् देवताओं की करामात थी। वह गंगा, जमुना, सरस्वती, शिव और परमपिता भगवान कश्यप की आराधना करते थे। इसके अतिरिक्त कहते हैं कि एक दिन जब सरोवर से वह फल-फूल तोड़ रहे थे तब क्षमात् किसी राजा की सवारी उधर आ निकली और घोड़ों की घुड़दौड़ सुन कालू जी घबरा गए। ऐसा न हो कि ये मुझे यहां से फलफूल तोड़ने का दोषी समझ दण्ड देने आए हों। इस प्रकार भयभीत हुए कालू जी भीगे तन भभूत रमा साधुओं की भांति दमघोट समाधि लगाकर बैठ गए। जब राजा निकट आए तब उन्होंने देखा कि ये तो कोई संत महात्मा समाधि लगाए बैठा है। तब राजा ने घोड़े से उतर कालू जी को चरणस्पर्श नमस्कार किया परन्तु भयभीत कालू जी ने आँख तक न झपकीं। इसी प्रकार राजा के सिपहसालार साथी भी चरण छूते चले गए। तत्पश्चात कालू जी को आत्मज्ञान हुआ कि भक्ति में ही अटल शक्ति है। और कहा,
बाणा बड़ा दयाल का तिलक छाप और माल ।
यम डर पै कालू कहै भय मानै भोपाल ।।"
इस प्रकार उन्होंने अटूट भक्ति की और जगत विखयात् संत हुए, कहते हैं कि गुड़ खांडसारी और समुद्रपार विदेशों में जाने के लिए सर्वप्रथम नांव का प्रचलन उन्होंने किया, इस प्रकार कालू जी भगत ही नहीं वैज्ञानिक भी थे। इनके अनेक शिष्य और कई जगह पूजा स्थल एवं मुख्य स्थान होने की संभावना व्यक्त करते हैं जैसे प्रयागराज, ऋषिकेस, हरिद्वार, कुल्लू, कश्मीर इत्यादि ।
इस प्रकार इस वृतांत को सुन आज हमारे ही कुछ लोग हमसे पूछते हैं कि इतना कुछ होते हुए भी ऐसे महापुरुष का जिक्र पौराणिक व आधुनिक ग्रन्थों में क्यों नहीं ?
इसका उत्तर यह है कि बहुत पुरानी बात होने से हमारे लोगों में शिक्षा का अभाव व दरिद्रता के कारण इनका वास्तविक नाम भूल उपभ्रंश नाम कालू कहने लगे हों या इनका घरेलू नाम कालू हो और संन्यास लेने के बाद कुछ और नाम रखा गया हो। जैसा कि पुरानी प्रथा प्रचलित है कि जब कोई व्यक्ति घरबार छोड़ सन्यास लेता है तब उसके गुरुजन उसका नाम बदलते हैं। इस प्रकार के उदाहरण बहुत हैं। इसलिए हम भी यथासंभव अधय्यन तथा पूछताछ के बाद जो निषकर्ष निकाल सके वो ये हैं कि सम्भवत् लोग कण्व को ही कालू कहते हैं। जिनका वृतांत इनसे कुछ ना कुछ मिलता है तथा इनका पैतृक सम्बन्ध और वंशावली भी इस समुदाय के लोगों से मिलती है। इसलिए कण्व वृंतात भी इसी पुस्तक में आगे दिया है। निम्न प्रकार किसी ने सत्य कहा है -
जिन ढूंढा उन पाइया गहरे पानी पैठ ।
मैं बबुरा बुढ़न डरा रहा किनारे बैठ ।।