धीवर डूबा लोभ में जब पाप की गठरी थाई
गर्मियों की एक संध्या थी। गाँव के पुराने पीपल के पेड़ के नीचे चारपाई पर बैठे दादा जी अपने पोते मनीष को एक रोचक कथा सुनाने के लिए तैयार थे। मनीष को अपने दादा जी की कहानियाँ बहुत पसंद थीं, क्योंकि वे हमेशा जीवन की बड़ी सीख छुपाए रहती थीं।
दादा जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, यह कहानी हमारे कश्यप समाज में पीढ़ियों से सुनाई जाती आ रही है। इसे ध्यान से सुनो, क्योंकि इसमें एक बहुत बड़ी सीख है।"
भोलेनाथ के भक्त धीवर की कथा
बहुत समय पहले की बात है। एक धीवर (मछुआरा) था, जो भगवान भोलेनाथ का अनन्य भक्त था। वह नित्य शिवजी की पूजा करता, भजन गाता और मंदिर की सेवा करता था। उसकी भक्ति से माता पार्वती भी प्रसन्न थीं। एक दिन उन्होंने भगवान शिव से कहा,
"स्वामी! आपका यह भक्त अत्यंत निष्ठावान है, कृपया इसकी कोई इच्छा पूरी करें।"
भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा, "अवश्य, जो इसकी मनोकामना होगी, मैं स्वयं धरती पर जाकर उसे पूरा करूँगा।"
लोभ की परीक्षा
एक दिन धीवर खेत में काम करने के बाद एक पेड़ की छांव में बैठकर विश्राम करने लगा। उसके पास ही एक कुआँ था। तभी एक व्यक्ति आया और अपने पापों से भरी गठरी कुएँ में डालकर चला गया।
कुछ देर बाद, जब धीवर को प्यास लगी, तो वह कुएँ पर गया और पानी निकालने के लिए डोल (रस्सी से बंधी बाल्टी) कुएँ में डाला। जैसे ही उसने डोल ऊपर खींचा, उसमें पानी के साथ वह पापों की गठरी भी आ गई।
तभी अचानक भगवान भोलेनाथ उसके सामने प्रकट हुए। धीवर उनकी दिव्य उपस्थिति देखकर अत्यंत प्रसन्न हो गया और हाथ जोड़कर बोला,
"बाबा! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।"
भोलेनाथ बोले, "वत्स, मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। जो भी इच्छा हो, निःसंकोच मांग लो।"
लोभ का अंजाम
धीवर को कुएँ में अटकी गठरी का ध्यान आया और उसने भोलेनाथ से कहा,
"बाबा, जो यह गठरी कुएँ में अटकी है, वही मुझे चाहिए।"
भगवान शिव जानते थे कि यह पापों की गठरी थी। उन्होंने धीवर को समझाते हुए कहा,
"वत्स, यह गठरी तुम्हारे लिए किसी काम की नहीं। इसे छोड़कर कुछ और मांग लो – धन, समृद्धि, ज्ञान, या भक्ति।"
लेकिन लोभ में अंधे हो चुके धीवर ने जिद पकड़ ली और बार-बार वही मांगता रहा,
"बाबा, मुझे बस यही गठरी चाहिए।"
भगवान शिव ने आखिरी बार चेतावनी दी, "सोच लो, जो कुछ भी इसमें है, उसका परिणाम तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।"
परंतु धीवर अपनी जिद पर अड़ा रहा। अंततः भोलेनाथ ने कहा, "तथास्तु!"
जैसे ही धीवर ने वह गठरी खोली, उसमें से भयंकर दुर्गंध निकली और चारों ओर अंधकार फैल गया। गठरी के खुलते ही उसके जीवन में अशांति, दुख, और संकटों की बारिश होने लगी। धन और वैभव की बजाय उसे केवल कष्ट और पछतावा ही मिला।
अब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।
दादा जी की सीख
कहानी समाप्त कर दादा जी बोले, "बेटा, इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि लोभ सबसे बड़ा शत्रु है।"
मनीष ने जिज्ञासु होकर पूछा, "दादा जी, इसका मतलब यह हुआ कि जो ज्यादा पाने की इच्छा रखता है, उसे नुकसान ही होता है?"
दादा जी मुस्कुराए और बोले, "बिल्कुल बेटा! जो व्यक्ति संतोष और सद्गुणों को अपनाता है, वही सच्चा सुख पाता है। अधिक पाने की लालसा अक्सर विनाश की ओर ले जाती है। भगवान हमें वही देते हैं जो हमारे लिए उचित होता है, न कि वह जो हम जिद में मांगते हैं।"
मनीष ने सिर हिलाकर कहा, "समझ गया, दादा जी! अब से मैं कभी भी लालच नहीं करूँगा।"
दादा जी ने उसे प्यार से गले लगा लिया और बोले, "शाबाश बेटा! यही हमारे
कश्यप समाज की सीख है, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाना है।"