आंतरिक कलह एवं आक्रांताओं के षड्यंत्र से हिंदू हुए पराजित
युद्ध में विजय और पराजय के आंतरिक और बाह्य दोनों कारण होते हैं। हिंदू जब भी इन दोनों परिस्थितियों के अनुकूल रहे, वे विजयी हुए।
विदेशी आक्रांताओं एवं महत्त्वपूर्ण लुटेरों के साथ हुए युद्धों में हिंदू लगातार विजयी होते रहे। किंतु जहाँ भी पराजय हुई, उसमें प्रायः आंतरिक कारण अधिक प्रभावी रहे। कहीं हिंदू राजाओं को नेतृत्व में अक्षम राजा मिले, तो कहीं उनकी सेना की संख्या सीमित कर दी गई। परंतु जब भी हिंदू योद्धाओं ने किसी राजा की ओर से युद्ध किया, उन्होंने निष्ठा, ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होकर रणभूमि में शौर्य का प्रदर्शन किया।
हिंदू राजाओं में आंतरिक कलह मुख्यतः व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के कारण था। उन्होंने समय पर यह नहीं समझा कि राष्ट्रीय समस्या के समय व्यक्तिगत मतभेदों को छोड़कर सर्वप्रथम देशहित को प्राथमिकता देनी चाहिए। जब तक लोगों ने देशहित को सर्वोपरि माना, तब तक विदेशी आक्रांताओं को देश की एक इंच भूमि भी प्राप्त नहीं हो सकी। किंतु जब हिंदू राजाओं में आपसी संघर्ष बढ़ा, तभी विदेशी आक्रांताओं को आक्रमण का अवसर मिला। महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी भी इसी आंतरिक कलह के कारण सफल हुए। कायर राजा आंभी और गद्दार जयचंद को इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। इसी प्रकार, अकबर के सेनापति बनने के बावजूद मानसिंह को राणा प्रताप ने कभी अपना नहीं माना और उनके साथ भोजन तथा वार्ता करने से भी इंकार कर दिया।
भारत में आंतरिक कलह के कारण एकता समाप्त हो गई। सभी राजा स्वयं को सर्वोच्च मानने लगे। जब किसी एक पर आक्रमण होता, तो दूसरा राजा सहायता करने के बजाय तटस्थ बना रहता, बल्कि कई बार तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आक्रांताओं का सहयोग भी करता। विदेशी तुर्क आक्रांता जब देशद्रोहियों के सहयोग से विजय प्राप्त करते थे, तो बाद में उन्हीं देशद्रोहियों को मिटाकर उनका भी अंत कर देते थे। तब पछतावे के अलावा उनके पास कुछ नहीं बचता था।
विदेशी तुर्क और मुगल आक्रांता षड्यंत्र रचने में हिंदू राजाओं से अधिक चतुर थे। जब वे पराजित होकर भागते, तो हिंदू राजा उनका पीछा नहीं करते थे। इसी कारण वे पुनः संगठित होकर अधिक शक्ति के साथ लौट आते थे। हिंदू योद्धाओं को कई बार अपने राजाओं के आदेश के कारण शत्रु को छोड़ना पड़ा, जिसने बाद में और अधिक विध्वंस मचाया।
विदेशी आक्रांता आक्रमण से पहले व्यापारियों और गुप्तचरों के माध्यम से उस स्थान की विस्तृत जानकारी प्राप्त कर लेते थे और किसी न किसी रूप में अपने सैनिकों को हिंदू दुर्गों में प्रवेश दिलवा देते थे। आक्रमण के समय ये पूर्व-संगठित विदेशी सैनिक दुर्गों के द्वार खोल देते या उनकी दीवारें ध्वस्त कर देते थे।
किसी भी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए धन आवश्यक होता है। विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का पहला प्रयास यह रहता कि हिंदू क्षेत्रों की अन्न-जल व्यवस्था को अवरुद्ध कर दिया जाए ताकि बिना युद्ध किए ही वे आत्मसमर्पण करने को विवश हो जाएँ। अन्य राज्यों पर आक्रमण के दौरान वे मार्ग में लूटपाट, आगजनी और हाहाकार मचाते थे ताकि हिंदू जनता भयभीत होकर उनका विरोध करने का साहस न कर सके।
विदेशी अरब आक्रांता यहीं के धन से भाड़े के सैनिक खरीदते और अपनी सेना को बढ़ाते थे। उन सभी सैनिकों को लूट के माल में हिस्सा दिया जाता था। इसके चलते उन्होंने कई लालची हिंदू सैनिकों को भी अपनी सेना में सम्मिलित कर लिया। युद्धभूमि में वे सर्वप्रथम उन्हीं हिंदू सैनिकों को आगे भेजते और लड़ने-भागने की रणनीति अपनाते ताकि हिंदू सेना थक जाए। इसके बाद, वे अपने सुसज्जित घुड़सवार सैनिकों को अंतिम समय में युद्धभूमि में उतारते और हारी हुई बाजी जीत लेते।
विदेशी आक्रांताओं की रणनीति में संधि करना और फिर अवसर मिलते ही उसे तोड़कर छलपूर्वक आक्रमण करना प्रमुख था। रात के समय अचानक हमला कर वे हिंदू सैनिकों को मारकर या बंदी बनाकर समाप्त कर देते थे।
हिंदू सेनाएँ धर्म-युद्ध के सिद्धांतों का पालन करती थीं, जबकि विदेशी आक्रांताओं के लिए युद्ध केवल अवसर का लाभ उठाने का साधन था। वे युद्ध के किसी भी नियम की परवाह नहीं करते थे। हिंदू योद्धाओं के लिए धर्म, नारी-सम्मान, और नैतिकता सर्वोपरि थी। वे कभी भी स्त्रियों और अबोध बच्चों पर शस्त्र नहीं उठाते थे, किसी को गुलाम नहीं बनाते थे, और पराजित शत्रु का पीछा करके उसका वध नहीं करते थे। यही उनके पराजय का मुख्य कारण बना।
भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव
मानव समाज पर भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों का स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है। इसे समझने के लिए मैदानी और जंगलों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली का अध्ययन किया जा सकता है। विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदुओं का धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण किया गया, जिसके कारण उन्हें जंगलों में शरण लेनी पड़ी। इस्लामी शासकों ने हिंदुओं को जबरन धर्मांतरित करने के लिए व्यापक अभियान चलाए। उन्होंने जंगलों को काटने और वहाँ छिपे हिंदुओं को ढूँढकर मुसलमान बनाने का प्रयास किया।
राजवंशी धर्माभिमानी योद्धाओं ने गुफाओं और कंदराओं में रहकर अपने सैन्य संगठन को मजबूत किया, जबकि कुछ हिंदू अपना अस्तित्व बचाने के लिए मैदानी क्षेत्रों में भटकते रहे। जो लोग जंगलों में रहे, वे ‘वनवासी’ कहलाए, जबकि मैदानी क्षेत्रों में निरंतर संघर्ष झेलने वाले समुदाय ‘बंजारा’ नाम से जाने गए। निरंतर उत्पीड़न और संसाधनों की कमी के कारण उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई और वे विकास की मुख्य धारा से कट गए। विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं के शोषण और उत्पीड़न के कारण उनकी सामाजिक पहचान भी परिवर्तित हो गई।
परिवर्तित पहचान और वर्तमान परिदृश्य
ऐसे क्षत्रिय राजवंशी और योद्धा समाज को विदेशी आक्रांताओं द्वारा हर स्तर पर कमजोर किया गया। इसी कारण उनकी स्थिति दयनीय बन गई और वे समाज में ‘दलित’ के रूप में पहचाने जाने लगे। यदि आज भी हम इतिहास के इन तथ्यों को देखें, तो पाएँगे कि जंगलों में रहने वाले समुदाय अधिक निर्भीक, शक्तिशाली और स्वाभिमानी होते हैं, क्योंकि वे पूर्वकाल में राजवंशीय योद्धा थे।
इन्हीं परिस्थितियों के कारण, कई राजवंशीय जातियों की पहचान बदल गई। विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से पहचाने जाने वाले ये योद्धा समुदाय, जैसे धीवर (कश्यप), खरवार, गोंड, नट, वाल्मीकि, कोल, भील, चेरो, भुइँया, संथाल, धौमर, चमार आदि, किसी समय पर शूरवीर योद्धा थे। वे भारत के विभिन्न भू-भागों में शासन करते थे, परंतु अरब और तुर्क आक्रांताओं के अत्याचारों के कारण उनकी सामाजिक पहचान परिवर्तित हो गई और वे आज ‘ .दलित’ के रूप में जाने जाते हैं।