धीवरः यह भेद दो शब्दों के संयोग से बना है अर्थात् धी + वरः धीवर= बुद्धिवान व्यक्ति
धर्म के 10 लक्षण होते है
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
उन में से एक हैं
1- धी का अर्थ है बुद्धि । बुद्धि एक साधन है जो परमात्मा ने मनुष्य को इसलिए दिया है कि वह ज्ञानार्जन कर सके । फिर विभिन्न प्रकारों से उसका प्रयोग करके, अनेकों उपकरणों, कार्य के साधनों का निर्माण करके, इस जीवन में हम सुख प्राप्त करें और दुखों को घटाएं । और, बुद्धि मोक्ष के लिए भी उतनी ही आवश्यक है, क्योंकि ज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त करना सम्भव ही नहीं। भक्ति-मार्गी ऐसा समझते हैं कि भक्ति ही परमात्मा को पाने के लिए पर्याप्त है, परन्तु यह सही नहीं । ज्ञान, भक्ति और कर्म का सही समन्वय ही हमें उस अत्यन्त दुरूह लक्ष्य तक पहुंचा सकता है ।
2- वर की परिभाषाएं और अर्थ वर - सर्वोत्तम । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः श्रेष्ठता सूचित करने के लिये संज्ञा या विशेषणों के आगे होता है । जैस,—पंडितवर, विज्ञवर, वीरवर, मित्रवर ।
श्रेष्ठ । उत्तम
क्षत्रिय-वंश प्रदीप द्वितीय भाग मे धीवर जाती के बारे में लिखो हुआ है
धीवरः यह भेद दो शब्दों के संयोग से बना है अर्थात् धी + वरः = धीवरः अर्थात कहारों में ओ समुदाय बुद्धिमान था वे धीवर कहे जाने लगे, परन्तु मुसल्मानी अत्याचार के समय देश में धर्म विप्लव हुआ और इनकी दशा भी बिगड़ी और ये लोग भी मुसल्मान किये जाने लगे थे बहुत से मुसल्लान होगये और बहुत से मछलो पकड़ने का काम करने लगे जो इनके लिये उपयुक्त कर्म नहीं। परन्तु देशभेद व देश- भाषा के कारण ये लोग बुन्देलखण्ड में 'मछुमारा' भी कहे जाते है आजकल तो ये लोग कहीं खेती कहीं नौकरी कहीं खजूर के टोकरे पंखे बनाना आदि धन्दे करके निर्वाह करते हैं मि० नेस्फील्ड M. A. आादिः विद्वान जैसा हम लिख आये हैं लिखते हैं कि ये लोग इस मछली मारने के काम को छोड़ते जाते हैं। युक्त- प्रदेश में इनकी जन संख्या ३६८६५ । है।
शिमिर से झिमर
कश्मीर का प्राचीन नाम "कश्यप-भूमि" या "कश्यपमर" था। यह नाम कश्यप ऋषि से जुड़ा हुआ है, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र को जलमग्न स्थिति से बाहर निकाला और इसे बसने योग्य बनाया। संस्कृत में "क" का अर्थ है जल, और "शिमिर" का अर्थ है सूखा। इन शब्दों से "कश्मीर" नाम की उत्पत्ति मानी जाती है, जो कश्यप ऋषि की जलनिकासी प्रक्रिया का प्रतीक है।
इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि कश्यप ऋषि के वंशजों ने इस क्षेत्र में मानव समाज और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब समय के साथ कश्मीर के लोग अपने मूल स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाकर बसने लगे, तो उनकी पहचान उनके मूल क्षेत्र से जुड़ी रही।
कश्मीर से बाहर जाकर बसने वाले इन लोगों को उनके क्षेत्र के नाम के आधार पर "कश्मीरी" कहा गया। धीरे-धीरे यह नाम स्थानीय उच्चारण और बोलचाल के कारण परिवर्तित होता गया। कुछ क्षेत्रों में इन्हें "धींवर" कहा जाने लगा, और बाद में यह नाम और भी अधिक परिवर्तित होकर "झिमर" हो गया। इस तरह, "कश्मीरी" से "झिमर" तक का यह भाषाई और सांस्कृतिक परिवर्तन समय के साथ हुआ।
धीवर समूह से संबंधित कहानी
बुजुर्गों के कथनानुसार जब परम् पूज्य बाबा कालू जी महाराज ने नारद को गुरु ज्ञान दिया था और उसे लख चौरासी योनियां भोग ब्रम्ह पद प्राप्त करने की विधि बताई थी। तब नारद की यह करतूत देख सभी देवता चकित रह गये और नारद को अपनाना पड़ा, अन्यथा उसे कोई निकट बैठने नहीं देता था। नारद द्वारा जब उनके गुरु का नाम सुना तब देवताओं ने उनकी • सूझ-बूझ और अकलमन्दी के आधार पर कालू जी की धींवर (अत्यन्त बुद्धिमान) कहके सराहना की और उनको कालू की जगह कण्व नामांकण ऋषि पद दिया था। इस प्रकार धींवर नाम प्रचलित हुआ बताते है।
इस कारण देश के अन्य भागों से उत्तर प्रदेश, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली के आस-पास अब भी इनकी आबादी अधिक है। इनके गुड़-खांडसारी, फल-फ्रूट, सब्जी उत्पादन, नाव संचालन, टोकरे आदि बनाने के कार्यों को देख इन्हीं जैसे पिछड़े हुए अन्य देशी, विदेशी, क्षत्री, वैश्य, बाम्हण आदि भी इनमें मिलते रहे। तथा यह लोग भी दूसरी कार्यरूपी जातियों में जाते रहे। इसीलिये एक-एक जाति के गौत्र कई कई जातियों में पाये जाते है। सनै-सनैः सभी जातियों में ऊंच-नीच अलगाव वादी भावनाओं के फलस्वरूप उप जातियां बनने लगी, जैसे हम अपने समुदाय में कहार, महार, बाथम, बथवाहा, बुड़ना, मल्लाह, निषाद आदि उपजातियां देखते हैं।
समय-समय पर महापुरुषों, महान आत्माओं ने इस अलगाववादी जातिवाद को खत्म करके पुनः वर्ण व्यवस्था की भांति सार्वजनिक संगठन एवं संघ बनाने का प्रयत्न किया था।
आज के दौर में जिस प्रकार झींवर, धींवर आदि समुदाय संगठित करने का प्रयत्न जारी है इसी प्रकार पहले भी महापुरुषों द्वारा कश्यप नाम से इन्हें संगठित करने का प्रयत्न किया प्रतीत होता है।
संघर्ष, मान-सम्मान की लड़ाई का प्रतीक कश्यप राजपूत सभा "
1920 कश्यप समुदाय
दोस्तों, हमारे लोगों और पूर्वजो ने अपने आत्म-सम्मान और समुदाय के गौरव के लिए समय समय पर बहुत संघर्ष किये है और वर्तमान में हरियाणा, पंजाब, देहली में कार्यरत "कश्यप राजपूत सभा" भी समुदाय मान सम्मान की लड़ाई का ही परिणाम है और यह सभा बनाकर अंग्रेजो के शाशनकाल में भी हमारे पूर्वजो ने अपनी संगठनात्मक शक्ति का लोहा मनवाया था ।
हुआ यूँ की 1920 में हमारे कश्यप समुदाय का एक युवक जो की शामली (उत्तर प्रदेश) का रहने वाला था, को अंग्रेजी सेना में एक बटालियन में कैप्टन की नौकरी मिली, शुरू में तो सब ठीक था पर जैसे ही उस बटालियन के सिपाहियों (राजपूत आदि) को पता चला की उनका कैप्टन झींवर जाति का है, तो उन्होंने उसको सलामी देनी बंद कर दी और बड़े अफसरों से अपने कौमी नेताओ के मार्फत शिकायत करी की ये कैप्टन नीची जाति का है और उसको हटाया जाए | अंग्रेज अफसरों ने सेना में बगावत के डर से हमारे समुदाय के उस व्यक्ति को उस व्यक्ति को उस बटालियन के कप्तान के पद से हटा दिया। जब हमारे समुदाय के, उस कप्तान को उसके पद से हटाने का पूरा मामला पता चला की, उसकी बटालियन के कुछ राजपूत सिपाहियों ने उनके कौमी नेताओ की मार्फत शिकायत करके उसको हटवाया है, तो वो भी अपने कौमी नेताओ के पास अपनी फ़रियाद लेकर पंहुचा ।
उस युवक ने शामली के नजदीक रहने वाले कश्यप समुदाय के नेता स्व० श्री हरदयाल सिंह जी, जो की उस समाज में गणमान्य व्यक्तियों में थे, से संपर्क किया और फिर उन्ही के मार्फ़त विख्यात समाजसेवी श्री दुर्गादत्त कुशन जी और उनकी पत्नी श्रीमती मिश्री देवी जी; पति-पत्नी, (जिन्होंने उस समय कश्यप समुदाय के बच्चो और अन्य गरीब बच्चो को शैक्षिक करने के लिए नहटौर जिला बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में फ्री स्कूल चलाया हुआ था, जिस कारन उनको विरादरी में उस समय विशेष सम्मान था और समुदाय के कौमी नेता उनकी हर बात मानते थे), से संपर्क कर, अपने साथ हुए नाइंसाफी बताई की दूसरे समाज के कौमी नेताओ के कहने पर उसको सेना से हटा दिया है और उसको नीच जाति का कहकर अपमान किया गया है। श्री दुर्गादत्त और वहां मौजूद अन्य मौजिज लोगों ने उस युवक को इन्साफ दिलाने के लिए कौमी नेताओ की पंचायत करने का निर्णय लिया । सके पश्चात श्री दुर्गादत्त कुशन जी के बुलावे पर दिनाक 21 अक्टूबर 1923 को आयोजित पंचायत में तत्कालीन पंजाब, उत्तरप्रदेश के कोमी नेताओ की पंचायत हुई, जिसमे कश्यप समुदाय को एक गौरवपूर्ण पहचान देने और अगली पंचायत में नाम बारे विचार करने का निर्णय लिया गया। इस पंचायत में मलखान सिंह जी (उत्तर प्रदेश), लखनपाल जी (उत्तर प्रदेश), दुर्गादत्त जी (उत्तर प्रदेश), मिश्री देवी (उत्तर प्रदेश), श्री नर बहादुर (उत्तर प्रदेश), झंवर सिंह खेवट (उत्तर प्रदेश), श्री छज्जन सिंह सोनीपत (तत्कालीन पंजाब वर्तमान हरियाणा), श्री लज्जे राम झींवर (करनाल, तत्कालीन पंजाब वर्तमान हरियाणा) श्री अमरनाथ जी कोहमरी (पंजाब) बाब मल चाँट जंजत्वा जालंधर, पंजाब), भगत सिंह (पंजाब), महाशय गेंदराम (लाहौर), श्री रतन सिंह मतौरिया, रोहतक (तत्कालीन पंजाब वर्तमान हरियाणा), श्री दीनानाथ कश्यप चंडीगढ़ (तत्कालीन पंजाब) व सरदार बंता सिंह (देहली) आदि समुदाय के नेताओ ने भाग लिया था इसके बाद दिनाक 13-14-15 नवम्बर 1923 को नज़ीबाबाद (उत्तर प्रदेश) में इस बारे दूसरी पंचायत दुर्गादत्त जी की अध्यक्षता में हुए जिसमे समुदाय के नामी कौमी नेताओ, जिन्होंने पहली पंचायत में हिस्सा लिया था, ने भाग लिया और इस पंचायत में बाबू रतन सिंह अधिवक्ता (अमृतसर, पंजाब) वा विशम्बर नाथ चलोकिया (लाहौर) जी विशेष तौर पर आमत्रित थे | नज़ीबाबाद (उत्तर प्रदेश) में आयोजित इस दूसरी पंचायत ने महापंचायत का रूप ले लिया था और इसी महापंचायत में समुदाय को एक गौरवशाली की पहचान देने पर सहमति जताई गयी थी। अंत में समुदाय की "कश्यप-राजपूत" पहचान पर पंचायत में मौजूद लोगों ने सहमति बनी और इस पहचान के लिए "अखिल भारतीय कश्यप राजपूत महासभा" के निर्माण के लिए हामी भरी थी। अखिल भारतीय कश्यप राजपूत महासभा" को पंजीकृत करवाने और सदस्यों के चुनाव के लिए के लिए तीसरी पंचायत दिनाक 29-30-31 दिसम्बर 1923 को सांवल दास धर्मशाला, बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में करने के निर्णय के साथ ही यह दूसरी पंचायत समापत हुई। इसके बाद तय वक़्त / तारीख पर 29-30-31 दिसम्बर 1923 को समुदाय के" उन सभी कौमी नेताओ की पंचायत श्री दुर्गादत्त कुशन जी की अध्यक्षता में सांवल दास धर्मशाला, बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में संपन्न हुई जिसमे 'अखिल भारतीय कश्यप राजपूत महासभा' को रजिस्टर्ड करवाने के लिए समिति बनाई गयी, जिसमे श्री विशम्बर नाथ चलोकिया (लाहोरी) को सर्वसम्मति से प्रधान नियुकत किया गया और श्री लखनपाल जी (उत्तर प्रदेश), दुर्गादत्त जी (उत्तर प्रदेश), श्री नर बहादुर (उत्तर प्रदेश), झंवर सिंह खेवट (उत्तर प्रदेश), श्री छज्जन सिंह सोनीपत, श्री अमरनाथ जी कोहमरी (पंजाब), बाबू मूल चाँद जंजबा (जालंधर, पंजाब) महाशय गेंदराम (लाहौर) व सरदार बंता सिंह (देहली), आदि इसके सदस्य चुने गए। 'अखिल भारतीय कश्यप राजपूत महासभा' के इन चयनित सदस्यों ने शिमला (तत्कालीन पंजाब), उन दिनों सभी शासकीय कार्य वही से संपन्न होते थे, में 'अखिल भारतीय कश्यप-राजपूत महासभा के पंजीकरण के लिए कार्यवाही शुरू करी, जिसको अंग्रेजी शाशन द्वारा दूसरे समाज के दवाब में एतराज / आपत्ति लगाकर पंजीकरण करने से मना कर दिया, तो कश्यप राजपूत महासभा के नामित सदस्यों और कौमी नेताओ ने अपनी संगठनात्मक शक्ति और एकता दिखाते हुए शाशन के विरुद्ध 1924 में शिमला कोर्ट में केस कर दिया और चार वर्षों तक कोर्ट में केस लड़कर, समुदाय की वेद-पुराणो में पौराणिक पहचान को सिद्ध कर, उस वक्त अंग्रेज शाशन के विरुद्ध अपने संघर्ष और एकता के बल पर कोर्ट में जीत हासिल करी, जिसके बाद 9 अगस्त 1927 को अखिल भारतीय कश्यप महासभा, लाहौर का पंजीकरण शिमला से करवाकर, उस समय इसका कार्यालय लाहौर में बनाया गया । 1947 में बंटवारा होने पर समुदाय की संगठनात्मक शक्ति को बनाया को बनाये रखने के लिए श्री विशम्बर नाथ चलोकिया जी और बाबू रत्न सिंह जी देहली आ गए और "अखिल भारतीय कश्यप राजपूत महासभा, लाहौर" के कार्यालय को देहली में स्थापित किया । कश्यप राजपूत सभा के कार्यालय की सुचना और नई सभा/कार्यकारिणी की स्थापना/घोषणा के लिए मार्च 1948 में देहली रेलवे स्टेशन के सामने फब्बारे की और कंपनी बाग़ में एक महासम्मेलन का आयोजन किया । इस सम्मलेन में "पंजाब कश्यप राजपूत सभा" के नाम से नई सभा बनाने का निर्णय लिया गया और श्री चलोकिया जी को सरंक्षक, श्री रत्न सिंह जी को अध्यक्ष बनाया गया और श्री दुर्गादत्त कुशन, श्री नर बहादुर, श्री धनीराम कटियार जी, श्री झंवर सिंह खेवट, श्री गेंदा राम, श्री पूर्ण सिंह मांडल, श्री बंतासिंह, श्री लज्जे राम जी को कार्यकारिणी सदस्य बनाया गया इज कार्यालय के प्रबंधन का जिम्मा श्री लज्जे राम जी को सौंपा गया ।
आज़ादी के बाद 1952 में हुए प्रथम चुनावो में, इस कश्यप राजपूत सभा ने अपने गठन के 4 वर्ष के भीतर ही अपनी संगठन शक्ति और तालमेल का परिचय देते हुए तत्कालीन पंजाब के रोहतक ज़िले के गोहाना विधानसभा सीट से श्री राम स्वरूप मकड़ौली, डॉ० नेकी राम, श्री हरकिशन रोहतक, चो० सिब्बा राम, व नंदू राम गोहाना की कमिटी गठित करके श्री मामन राम कश्यप जी को अपना उम्मीदवार घोषित कर, सर्वसम्पन्न दूसरे समाज के लोगों को चकित करते हुए कश्यप समाज की शशक्त छवि पेश की थी । 1966 में हरियाणा के बनने के 12 वर्ष बाद हरियाणा के लोगों ने अपनी जातीय संगठन शक्ति/एकता बनाये रखने के लिए अलग "हरियाणा कश्यप राजपूत सभा, कुरुक्षेत्र" के नाम से पंजीकृत करवाई और हरियाणा में कई ज़िलों में अपने इसी संगठन-शक्ति के दम पर सरकार से धर्मशालाओं के लिए जगह और बिल्डिंग के लिए अनुदान प्राप्त किया । हमारे बुजुर्गो के संघर्ष, मान सम्मान की लड़ाई का प्रतीक बनी "कश्यप- राजपूत सभा" शब्द, जहाँ आज हरियाणा-पंजाब में समुदाय के लोगों की संगठन शक्ति और एकताका प्रतीक है, वही अन्य प्रदेशो के कुछ स्वार्थी स्वम्भू नेताओ के राजनीती का एक मुद्दा भी बन गया है जो समाज को जोड़ने में नहीं तोड़ने में विश्वास रखते है। हमारे बुजुर्गो ने " कश्यप राजपूत सभा " का गठन करके, कश्यप समाज की एक शशक्त छवि पेश करके, शोषण करने के विरुद्ध अपनी संगठनात्मक शक्ति की ताकत का एहसास, दूसरे सर्वसम्पन्न समाज के लोगों को करवाया था | जिसे बाद में हरियाणा सरकार ने इसी संगठन के दबाब में और शिमला कोर्ट के फैसले के आधार पर 1996-97 में "कश्यप- राजपूत" के नाम नई जातीय पहचान दी ।
1996-97
वर्ष 1996-97 से पहले हरियाणा में कश्यप जातीय सभी बंधुओ के जातीय प्रमाणपत्र झींवर या कहार के नाम से हरियाणा सरकार द्वारा जारी किये जाते थे, कश्यप राजपूत सभा के प्रतिनिधियों और हरियाणा में कश्यप समुदाय के लोगों के आह्वान पर 1996-97 में हरियाणा सरकार द्वारा कश्यप- राजपूत नाम से हमारी नई जातीय पहचान स्वीकार कर ली गयी और उसके बाद झींवर / कहार के साथ साथ 'कश्यप- राजपूत' के नाम से भी प्रमाणपत्र जारी होने लगे
गर्व करे हमारे पूर्वजो के संघर्ष पर ।गर्व करें अपने पूर्वजो की स्थापित संगठन शक्ति की पहचान पर ।पर गर्व करें हमारे समु
दाय के मान-सम्मान के प्रतीक बने "कश्यप-राजपूत सभा “
कश्यप राजपूत भारत के हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर राज्यों में पाई जाने वाली एक हिंदू जाति है। उन्हें क्षत्रिय राजपूत के नाम से भी जाना जाता है। वे कश्यप ऋषि के वंशज हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भगवान राम के समय में रहते थे। वे पूरे हरियाणा में पाए जाते हैं और उस राज्य में हरियाणवी बोलते हैं। समुदाय हिंदू और सिख राजपूत में विभाजित है। ये दोनों समूह प्रभावी रूप से अलग-अलग समुदाय हैं, जिनमें कोई अंतर्जातीय विवाह नहीं है। वे ब्राह्मण जो बुद्धिजीवी थे और शाही आदेशों का पालन करने से इनकार करते थे, वे ब्राह्मण जो सख्त जाति नियमों का समर्थन नहीं करते थे। उन पुरुषों, उन अग्रदूतों को भी उनके समुदाय से निकाल दिया गया और फिर उन्हें निचली जाति के लोगों के रूप में माना गया। कश्यप राजपूत वास्तव में ब्राह्मण थे जिन्होंने बाद में परिस्थितियों के कारण क्षत्रिय कार्य करना शुरू कर दिया और उन्हें विभिन्न जातियों में विवाह करना पड़ा। इसलिए, कश्यप को राजपूत कहा जाता था।